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दशाधिकशतं पर्व
काश्चनस्थाननाथस्य तनये रूपगर्विते । काञ्चनरथस्याऽऽस्तां ययोर्माता शतदा ॥१॥ तयोः स्वयंवरार्थेन समस्तान् भूनभश्वरान् । भाताययस्पिता प्रीत्या लेखवा हैमहाजवैः ॥२॥ दत्तो विज्ञापितो लेखो विनीतापतये तथा । स्वयंवर विधानं मे दुहितुश्चिन्त्यतामिति ॥३॥ ततस्तौ रामलक्ष्मीशी समुत्पन्चकुतूहलौ । ऋद्धया परमया युक्तान् सर्वान् प्राहिणुतां सुतान् ॥४॥ ततः कुमारधीरास्ते कृत्वाऽने लवणाङ्कुशौ । प्रययुः काञ्चनस्थानं सुप्रेमाणः परस्परम् ॥५॥ विमानशतमारूढा विद्याधरगणावृताः। श्रिया देवकुमाराभा वियन्मार्ग समागताः ॥६॥ आपूर्यमाणसरसैन्याः पश्यन्तो दूरगां महीम् । काञ्चनस्यन्दनस्याऽऽयुः पुटभेदनमुत्तमम् ॥७॥ यथा द्वे अपि श्रेण्यौ निविष्ट तत्र रेजतुः । सदसीव सुधर्मायां नानालङ्कारभूषिते ॥८॥ समस्तविभवोपेता नरेन्द्रास्तत्र रेजिरे । विचित्रकृतसञ्चेष्टास्त्रिदशा इव नन्दने ॥६॥ तत्र कन्ये दिनेऽन्यस्मिन्प्रशस्ते कृतमङ्गले । निर्जग्मतुनिंजावासाद्धी लम्याविव सद्गुणे ॥१०॥ देशतः कुलतो वित्ताचेष्टितामामधेयतः । ताभ्यामकथयस्सर्वान् कञ्चकी जगतीपतीन् ॥११॥ प्लवङ्गहरिशादूलवृषनागादिकेतनान् । विद्याधरान् सुकन्ये ते आलोकेतां शनैः क्रमात् ॥१२॥ दृष्ट्वा निश्चित्य ते प्राप्ता बैलच्य विहतत्विषः । दृश्यमानाः समारूढास्तुलां सन्देहविग्रहाम् ॥१३॥
अथानन्तर काञ्चनस्थान नामक नगरके राजा काननरथकी दो पुत्रियाँ थीं जो गर्वसे गर्वित थी तशा जिनकी माताका नाम शतहदा था ॥१॥ उन दोनों कन्याओंके स्वयंवरके लिए उनके पिताने महावेगशाली पत्रवाहक दूत भेजकर समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंको बुलवाया ॥२॥ एक पत्र इस आशयका अयोध्याके राजाके पास भी भेजा गया कि मेरी पुत्रीका स्वयंवर है अतः विचारकर कुमारीको भेजिए ॥३॥ तदनन्तर जिन्हें कुतूहल उत्पन्न हुआ था ऐसे राम और लक्ष्मणने परम सम्पदासे युक्त अपने सब कुमार वहाँ भेजे ॥४॥ तत्पश्चात् परस्पर प्रेमसे भरे हुए, वे सब कुमार, लवण और अंकुशको आगेकर काञ्चनस्थानकी ओर चले ॥५॥ सैकड़ों विमानों में बैठे, विद्याधरोंके समूहसे आवृत एवं लक्ष्मीसे देवकुमारीके समान दिखनेवाले वे सब कुमार आकाश-मार्गसे जा रहे थे ॥६॥ जिनकी सेना उत्तरोत्तर बढ़ रही थी तथा जो दूर छूटी पृथिवीको देखते जाते थे ऐसे सब कुमार काश्चनरथके उत्तम नगर में पहुँचे ॥७|| वहाँ देव-सभाके समान सुशोभित सभामें नाना अलंकारोंसे भूषित यथायोग्य स्थापित विद्याधरों और भूमिगोचरियोंकी दोनों श्रेणियाँ सुशोभित हो रहीं थीं ॥८॥ समस्त वैभवांसे सहित राजा नाना प्रकारकी चेष्टाएँ करते हुए उन श्रेणियोंमें उस तरह सुशोभित हो रहे थे जिस तरह कि नन्दन वनमें देव सुशोभित होते हैं ।।६।।
वहाँ दूसरे दिन जिनका मङ्गलाचार किया गया था तथा जो उत्तम गुणोंको धारण करने वाली थी ऐसी दोनों कन्याएँ ह्री और लक्ष्मीके समान अपने निवास स्थानसे बाहर निकली ॥१०॥ स्वयंवर-सभामें जो राजा आये थे कंचुकीने उन सबका देश, कुल, धन, चेष्टा तथा नामकी अपेक्षा दोनों कन्याओंके लिए वर्णन किया ॥११॥ ये सब वानर, सिंह, शार्दूल, वृषभ तथा नाग आदिको पताकाओंसे सहित विद्याधर बैठे हैं। हे उत्तम कन्याओ! इन्हें तुम क्रम क्रम से देखो ॥१२।। उन कन्याओं को देखकर जो लज्जाको प्राप्त हो रहे थे तथा जिनकी कान्ति फीकी
१. अयोध्यापतये । २. च्छ्रीलक्ष्म्याविव म०। ३. विहितस्विषः म ।
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