________________
३४०
पद्मपुराणे
येन बीजाः प्ररोहन्ति जगतो यच्च जीवनम् । जातस्ततो जलाद्वह्निः किमिहापरमुच्यताम् ॥१६१॥ उपलभ्येदृशं वाक्यं प्रतिरुद्धोऽभवन्मधुः । एवमेवेति तां देवीं पुनः पुनरभाषत ॥१६२॥ तथाप्यैश्वर्यपाशेन वेष्टितो दुःसुखोदधेः । भोगसंवर्तनी येन कर्मणा नावमुच्यते ॥१६३॥ द्राधीयसि' गते काले सुप्रबोधसुखान्विते । सिंहपादाह्वयः साधुः प्राप्तोऽयोध्यां महागुणः ॥१६॥ सहस्राम्रवने कान्ते मुनीन्द्रं समवस्थितम् । श्रुत्वा मधुः समायासीत्सपत्नीकः सहानुगः ॥१६५॥ गुरुं प्रणम्य विधिना संविश्य धरणीतले । धर्म संश्रुत्य जैनेन्द्रं भोगेभ्यो विरतोऽभवत् ॥१६६॥ राजपुत्री महागोत्रा रूपेणाप्रतिमा भुवि । अत्याक्षीदधिराज्यं च ज्ञात्वा दुर्गतिवेदनाम् ॥१६७॥ विदित्वैश्वर्यमानाय्यं मुनीभूतः स कैटभः । महाचर्यासमाक्लिष्टो विजहार महीं मधुः ॥१६॥ ररक्ष माधवीं क्षोणी राज्यं च कुलवर्द्धनः । सर्वस्य नयनानन्दः स्वजनस्य परस्य च ॥१६९॥
वंशस्थवृत्तम् मधुः सुघोरं परमं तपश्चरन्महामनाः वर्षशतानि भरिशः। विधाय कालं विधिनाऽऽरणाच्युते जगाम देवेन्द्रपदं रणच्युतः ॥१७॥
उपजातिः अयं प्रभावो जिनशासनस्य यदिन्द्रतापीहशपूर्ववृत्तः । को विस्मयो वा त्रिदशेश्वरत्वे प्रयान्ति यन्मोक्षपुरं प्रयत्नात् ॥१७१॥
देखनेसे क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? सर्वप्रथम आप स्वस्थताको प्राप्त होइए ॥१६०॥ जिससे
अङ्कगेकी उत्पत्ति होती है तथा जो जगत्का जीवनस्वरूप है उस जलसे भी यदि अग्नि उत्पन्न • होती है तब फिर और क्या कहा जाय ? ॥१६१॥ इस प्रकारके वचन सुनकर राजा मधु निरुत्तर हो गया और 'इसी प्रकार है' यह वचन बार-बार चन्द्राभासे कहने लगा ॥१६२।। इतना सब हुआ फिर भी ऐश्वर्यरूपी पाशसे वेष्टित हुआ वह दुःखरूपी सागरसे निकल नहीं सका सो ठीक । है क्योंकि भोगोंमें आसक्त मनुष्य कर्मसे छूटता नहीं है ॥१६३।।
__अथानन्तर सम्यक्प्रबोध और सुखसे सहित बहुत भारी समय बीत जानेके बाद एक वार महागुणोंके धारक सिंहपादनामक मुनि अयोध्या आये ॥१६४॥ और वहाँ के अत्यन्त सुन्दर सहस्राभ वनमें ठहर गये। यह सुन अपनी पत्नी तथा अनुचरोंसे सहित राजा मधु उनके पास गया ॥१६५।। वहाँ विधिपूर्वक गुरुको प्रणामकर वह पृथिवीतलपर बैठ गया तथा जिनेन्द्र प्रतिपादित धर्म श्रवणकर भोगोंसे विरक्त हो गया ॥१६६॥ जो उच्च कुलीन थी तथा सौन्दर्यके कारण जो पृथ्वीपर अपनी सानी नहीं रखती थी ऐसी राजपुत्री तथा विशाल राज्यको उसने दुर्गतिकी वेदना जान तत्काल छोड़ दिया ॥१६७। उधर मधुका भाई कैटभ भी ऐश्वर्यको चञ्चल जानकर मुनि हो गया। तदनन्तर मुनिव्रतरूपी महाचर्यासे क्लेशका अनुभव करता हुआ मधु पृथ्वीपर विहार करने लगा ॥१६८॥ स्वजन और परजन-सभीके नेत्रोंको आनन्द देनेवाला कुलवर्धन राजा मधुकी विशाल पृथ्वी और राज्यका पालन करने लगा ॥१६६॥ महामनस्वी मधुमुनि सैकड़ों वर्षों तक अत्यन्त कठिन एवं उत्कृष्ट तपश्चरण करते रहे। अन्तमें विधिपूर्वक मरणकर रणसे रहित आरणाच्युत स्वर्गमें इन्द्रपदको प्राप्त हुए ॥१७०।। गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो! जिनशासनका प्रभाव आश्चर्यकारी है क्योंकि जिनका पूर्वजीवन ऐसा निन्दनीय रहा उन लोगोंने भी इन्द्रपद प्राप्त कर लिया। अथवा इन्द्रपद प्राप्त कर लेनेमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि प्रयत्न
१. दीर्घतरे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org