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नवोत्तरशतं पर्व
वीरसेननृपः सोऽयं विज्ञाय विहृतां प्रियाम् । उन्मत्तत्वं परिप्राप्तो रतिं कापि न विन्दते ॥ १४७ ॥ मण्डवस्याभवच्छिष्यस्तापसोऽसौ जलप्रियः । मूढं विस्मापयंल्लोकं तपः पञ्चाभिकं श्रितः ॥ १४८ ॥ अन्यदा मधुराजेन्द्रो धर्मासनमुपागतः । करोति मन्त्रिभिः सार्द्धं व्यवहारविचारणम् ॥१४३॥ भूपालाचारसम्पन्नं सत्यं सम्मदसङ्गतम् । प्रविष्टोऽन्तःपुरं धीरस्तपनेऽस्ताभिलाषुके ॥ १५० ॥ खिना तं प्राह चन्द्राभा किमित्यद्य चिरायितम् । वयं क्षुदर्दिता नाथ दुःखं वेलामिमां स्थिताः ॥ १५१ ॥ सोऽवोचद्व्यवहारोऽयमरालः पारदारिकः । छेतु ं न शक्यते यस्मात्तस्मादद्य चिरायितम् ॥ १५२ ॥ विहस्योवाच चन्द्राभा को दोषोऽम्य प्रियारतौ । परभार्यां प्रिया यस्य तं पूजय यथेप्सितम् ॥ १५३ ॥ तस्थास्तद्वचनं श्रुत्वा क्रुद्धो मधुविभुजंगौ । ये पारदारिका दुष्टा निग्राह्यास्ते न संशयः ॥ १५४ ॥ दण्ड्याः पञ्चकदण्डेन निर्वास्याः पुरुषाधमाः । स्पृशन्तोऽप्यबलामन्यां भाषयन्तोऽपि दुर्मताः ।। १५५ ।। सम्मूढाः परदारेषु ये पापादनिवर्त्तिनः । अधः प्रपतनं येषां ते पूज्याः कथमीदृशाः ॥ १५६ ॥ देवी पुनरुवाचेदं सहसा कमलेक्षणा । अहो धर्मपरो जातु भवान् भूपालनोद्यतः ॥ १५७ ॥ महान् यथेष दोषोऽस्ति परदारे पिणां नृणाम् । एतं निग्रहमुर्वीश न करोषि किमात्मनः ||१५८॥ प्रथमस्तु भवानेव परदाराभिगामिनाम् । कोऽन्येषां क्रियते दोषो यथा राजा तथा प्रजाः ॥ १५६ ॥ स्वयमेव नृपो यत्र नृशंसः पारदारिकः । तत्र किं व्यवहारेण कारणं स्वस्थतां व्रज ॥ १६० ॥
इधर राजा वीरसेनको जब पता चला कि हमारी प्रिया हरी गई है तो वह पागल हो गया और किसी भी स्थानमें रतिको प्राप्त नहीं हुआ अर्थात् उसे कहीं भी अच्छा नहीं लगा - || १४७|| अन्त में मूर्ख मनुष्योंको आनन्द देनेवाला राजा वीरसेन किसी मण्डवनामक तापसका . शिष्य हो गया और मूर्ख मनुष्योंको आश्चर्य में डालता हुआ पश्चाग्नितप तपने लगा ॥१४८ ||
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किसी एक दिन राजा मधु धर्मासनपर बैठकर मन्त्रियोंके साथ राज्यकार्यका विचार कर रहा था । सो ठीक ही है क्योंकि राजाओंके आचारसे सम्पन्न सत्य ही हर्षदायक होता है । उस दिन राज्यकार्य में व्यस्त रहने के कारण धीरवीर राजा अन्तःपुरमें तब पहुँचा जब कि सूर्य अस्त होनेके सन्मुख था || १४६ - १५० ॥ खेदखिन्न चन्द्राभाने राजासे कहा कि नाथ! आज इतनी देर क्यों की? हमलोग भूख से अबतक पीडित रहे ।। १५१ ।। राजाने कहा कि यतश्च यह परस्त्री सम्बन्धी व्यवहार ( मुकद्दमा ) टेढ़ा व्यवहार था अतः बीचमें नहीं छोड़ा जा सकता था इसीलिए आज देर हुई है || १५२ || तब चन्द्राभाने हँसकर कहा कि परस्त्री से प्रेम करनेमें दोष
क्या है ? जिसे परस्त्री प्यारी है उसकी तो इच्छानुसार पूजा करनी चाहिए ॥१५३॥ उसके उक्त वचन सुन राजा मधुने क्रुद्ध होकर कहा कि जो दुष्ट परस्त्री लम्पट हैं वे अवश्य ही दण्ड देने के योग्य हैं इसमें संशय नहीं है ।। १५४ || जो परस्त्रीका स्पर्श करते हैं अथवा उससे वार्तालाप करते हैं ऐसे दुष्ट नीच पुरुष भी पाँच प्रकारके दण्डसे दण्डित करने योग्य हैं तथा देशसे निकालने के योग्य हैं फिर जो पासे निवृत्त नहीं होनेवाले परस्त्रियों में अत्यन्त मोहित हैं अर्थात् परस्त्रीका सेवन करते हैं उनका तो अधःपात--नरक जाना निश्चित ही है ऐसे लोग पूजा करने योग्य कैसे हो सकते हैं ? ॥ १५५ - १५६ ॥ तदनन्तर कमललोचना देवी चन्द्राभाने बीचमें ही बात काटते हुए कहा कि अहो ! आप बड़े धर्मात्मा हैं ? तथा पृथिवीका पालन करनेमें उद्यत हैं ॥ १५७॥ यदि परदाराभिलाषी मनुष्योंका यह बड़ा भारी दोष माना जाता है तो हे राजन् ! अपने आपके लिए भी आप यह दण्ड क्यों नहीं देते ? || १५८ || परस्त्रीगामियों में प्रथम तो आप ही हैं फिर दूसरोंको दोष क्यों दिया जाता है क्योंकि यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है कि जैसा राजा होता है वैसी प्रजा होती है ॥ १५६॥ जहाँ राजा स्वयं क्रूर एवं परस्त्रीगामी है वहाँ व्यवहार-अभियोग
१. वक्रः ।
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