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पद्मपुराणे
परलोकगतस्यापि पितुर्नाहं मनोरथम् । लुम्पामि तेन दुईष्टिकामनान्मरणं वरम् ॥१५॥ हरिकान्तार्यिकायाश्च पावं गत्वा ससम्भ्रमम् । प्रव्रज्य साकरोद्वाला तपः परमदुष्करम् ॥१५२॥ लुञ्चनोत्थितसंहक्षमूर्द्धजा मांसवर्जिता । प्रकटास्थिसिराजाला तपसा शुष्कदेहिका ॥१५३॥ कालधर्म परिप्राप्य ब्रह्मलोकमुपागता । पुण्योदयसमानीतं सुरसौख्यमसेवत ॥१५॥ तया विरहितः शम्भुलंधुत्वं भुवने गतः। विबन्धुभृत्यलचमीको प्रापदुन्मत्ततां कुधीः ॥१५५॥ मिथ्याभिमानसम्मूढो जिनवाक्यात्पराङ्मुखः । इसति श्रमणान् दृष्टा दुरुक्ते च प्रवर्तते ॥१५६॥ मधुमांससुराहारः पापानुमननोद्यतः । तिर्यङ्नरकवासेषु सुदुःखेष्वभ्रमच्चिरम् ॥१५७॥ अथोपशमनास्किञ्चित्कर्मणः केशकारिणः । कुशध्वजस्य विप्रस्य सावित्र्यां तनयोऽभवत् ॥१५८॥ प्रभासकुन्दनामासौ प्राप्य बोधि सुदूर्लभाम् । पाचँ विचित्रसेनस्य मुनेदर्दीक्षामसेवत ॥१५॥ विमुक्तरतिकन्दर्पगर्वसंरम्भमत्सरः । निर्विकारस्तपश्चक्रे दयावानिर्जितेन्द्रियः ॥१६॥ षष्ठाष्टमा मासादिनिराहारः स्पृहोज्झितः। यत्रास्तमितनिलयो वसन् शून्यवनादिषु ॥१६१॥ गुणशीलसुसम्पन्नः परीषहसहः परः । आतापनरतो ग्रीष्मे पिनद्धमलकञ्चुकः ॥१६२॥ वर्षासु मेघमुक्ताभिरद्भिः क्लिन्नस्तरोरवः । प्रालेयपटसंवीतो हेमन्ते पुलिनस्थितः ।। १६३॥
एवमादि क्रियायुक्तः सोऽन्यदा सिद्धमन्दिरम् । सम्मेदं वन्दितुं यातः स्मृतमप्यघनाशनम् ॥१६॥ साथ काम सेवन किया है, इसलिए मैं तेरे वधके लिए ही आगामी पर्यायमें उत्पन्न होऊँगी। यद्यपि मेरे पिता परलोक चले गये हैं तथापि मैं उनकी इच्छा नष्ट नहीं करूँगी। मिथ्यादृष्टि पुरुषको चाहनेकी अपेक्षा मर जाना अच्छा है ॥१४८-१५१।।
तदनन्तर उस बालाने शीघ्र ही हरिकान्ता नामक आर्यिकाके पास जाकर दीक्षा ले अत्यन्त कठिन तपश्चरण किया ।।१५२॥ लोंच करनेके बाद उसके शिरपर रूखे बाल निकल आये थे, तपके कारण उसका शरीर ऐसा सूख गया था मानो मांस उसमें है ही नहीं और हड्डी तथा नसोंका समूह स्पष्ट दिखाई देने लगा था ॥१५३॥ आयुके अन्तमें मरण कर वह ब्रह्मस्वर्ग गई । वहाँ पुण्योदयसे प्राप्त हुए देवोंके सुखका उपभोग करने लगी ॥१५४॥ वेदवतीसे रहित शम्भु, संसारमें एकदम हीनताको प्राप्त हो गया, उसके भाई-बन्धु, दासी-दास तथा लक्ष्मी आदि सब छूट गये और वह दर्बद्धि उन्मत्त अवस्थाको प्राप्त हो गया ॥१५५।। वह मठ-मूठके अभिमानमें चूर हो रहा था तथा जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंसे पराङ्मुख रहता था। वह मुनियोंको देख उनकी हँसी उड़ाता तथा उनके प्रति दुष्ट वचन कहता था ॥१५६।। इस प्रकार मधु मांस और मदिरा ही जिसका आहार था तथा जो पापकी अनुमोदना करने में उद्यत रहता था ऐसा शम्भु तीव्र दुःख देनेवाले नरक और तिर्यश्चगतिमें चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ।।१५७।।
अथानन्तर दुःखदायी पाप कर्मका कुछ उपशम होनेसे वह कुशध्वज ब्राह्मणकी सावित्री नामक स्त्री में पुत्र उत्पन्न हुआ ॥१५८॥ प्रभासकुन्द उसका नाम था । फिर अत्यन्त दुर्लभ रत्नत्रयको पाकर उसने विचित्रसेन मुनिके समीप दीक्षा धारण कर ली ।।१५६॥ जिसने रति काम, गर्व, क्रोध तथा मत्सरको छोड़ दिया था, जो दयालु था तथा इन्द्रियोंको जीतनेवाला था ऐसे उस प्रभासकुन्दने निर्विकार होकर तपश्चरण किया ॥१६०|| वह दो दिन, तीन दिन तथा एक पन आदिके उपवास करता था, उसकी सब प्रकारको इच्छाएँ छूट गई थीं, जहाँ सूर्य अस्त हो जाता था वहीं वह शून्य वन आदिमें ठहर जाता था ॥१६१।। गुण और शीलसे सम्पन्न थ', परीपहीको सहन करनेवाला था, ग्रीष्मऋतुमें आतापनयोग धारण करने में तत्पर रहता था, मलरूपी कञ्चुक से सहित था, वर्षाऋतुमें वृक्षके नीचे मेघोंके द्वारा छोड़े हर जलसे भीगता रहता था और हेमन्तऋतुमें बर्फरूपी वस्त्रसे आवृत होकर नदियोंके तट पर स्थित रहता था, इत्यादि क्रियाओंसे युक्त हुआ वह प्रभासकुन्द किसी समय उस सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखरकी वन्दना करनेके लिए गया
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