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नवोत्तरशतं पर्व
आकृष्टखहस्तौ च क्रुद्धौ जगदतुः समम् । जीवं रक्षतु ते लोकः क्व यासि श्रमणाधुना ॥३६॥ पृथिव्यां ब्राह्मणाः श्रेष्ठा वयं प्रत्यक्ष देवताः । निर्लज्जस्त्वं महादोषो जम्बुका इति भाषसे ॥ ६७ ॥ ततोऽत्यन्तप्रचण्डौ तौ दुष्टौ रक्तकलोचनौ । जाल्मौ कृपाविनिर्मुक्तौ सुयक्षेण निरीक्षितौ ॥१८॥ सुमनाश्चिन्तयामास पश्य निर्दोषमीदृशम् । हन्तुमभ्युद्यतौ साधुं मुक्ताङ्गं ध्यानतत्परम् ॥३३॥ ततः संस्थानमास्थाय तौ चोद गिरतामसी । यक्षेण च तदग्रेण स्तम्भितौ निश्चलौ स्थितौ ॥१००॥ विकर्म कत्तुमिच्छन्तावुपसर्ग महामुनेः । प्रतीहाराविव क्रूरौ तस्थतुः पार्श्वयोरिमौ ॥ १०१ ॥ ततः सुविमले काले जाते जाता जबान्धवे । संहृत्य सन्मुनिर्योगं निःसृत्यैकान्ततः स्थितः ॥ १०२॥ सङ्गश्चतुर्विधः सर्वः शालिग्रामजनस्तथा । प्राप्तः परमयोगीशमिति विस्मयवान् जगौ १०३ ॥ कावेतावदशौ पापौ धिक्कष्टं कत्तुमीहितौ अग्निवायू दुराचारावेतौ तावाततायिनौ ॥ १०४ ॥ तौ चाचिन्तयतामुच्चैः प्रभावोऽयं महामुनेः । आवां येन बलोद्वृत्तौ स्तम्भितौ स्थावरीकृतौ ॥१०५॥ अनयाऽवस्थया मुक्तौ जीविष्यामो वयं यदा । तदा सम्प्रतिपत्स्यामो दर्शनं 'मौनिसत्तमम् ॥१०६॥ अत्रान्तरे परिप्राप्तः सोमदेवः ससंभ्रमः । भार्ययाऽनिलया साकं प्रसादयति तं मुनिम् ॥१०७ ॥ भूयो भूयः प्रणामेन बहुभिश्च प्रियोदितैः । दम्पती चक्रतुश्चाटुं पादमर्दनतत्परौ ॥१०८॥
मान उन मुनिराजको उन दोनों पापियोंने देखा ॥ ६३-६५ ॥ उन्हें देखते ही जिन्होंने तलवार खींचकर हाथ में ले ली थी तथा जो अत्यन्त कुपित हो रहे थे ऐसे उन ब्राह्मणोंने एक साथ कहा कि लोग आकर तेरे प्राणोंकी रक्षा करें। अरे श्रमण ! अब तू कहाँ जायगा ? ॥ ६६ ॥ हम ब्राह्मण पृथिवीमें श्रेष्ठ हैं तथा प्रत्यक्ष देवता स्वरूप हैं और तू महादोषोंसे भरा निर्लज्ज है फिर भी हम लोगों को तू 'शृगाल थे' ऐसा कहता है ॥६७॥
तदनन्तर जो अत्यन्त तीव्र बोध से युक्त थे, दुष्ट थे, लाल-लाल नेत्रोंके धारक थे, विना विचारे काम करनेवाले थे और दयासे रहित थे ऐसे उन दोनों ब्राह्मणोंको यक्षने देखा ||६८ || उन्हें देखकर वह देव विचार करने लगा कि अहो ! देखो; ये ऐसे निर्दोष, शरीर से निःस्पृह और ध्यान में तत्पर मुनिको मारने के लिए उद्यत हैं ॥६६॥ तदनन्तर तलवार चलाने के आसन से खड़े होकर उन्होंने अपनी-अपनी तलवार ऊपर उठाई नहीं कि यक्षने उन्हें कील दिया जिससे वे मुनिराज के आगे उसी मुद्रामें निश्चल खड़े रह गये || १०० || महामुनिके विरुद्ध उपसर्ग करनेकी इच्छा रखनेवाले वे दोनों दुष्ट उनकी दोनों ओर इस प्रकार खड़े थे मानो उनके अंगरक्षक ही हों ॥ १०१ ॥
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तदनन्तर निर्मल प्रातःकाल के समय सूर्योदय होनेपर वे मुनिराज योग समाप्त कर एकान्त स्थान से निकल बाहर मैदान में बैठे || १०२ || उसी समय चतुर्विध संघ तथा शालिग्रामवासी लोग उन योगिराजके पास आये सो यह दृश्य देख आश्चर्यचकित हो बोले कि अरे! ये कौन पापी हैं ? हाय हाय कष्ट पहुँचानेके लिए उद्यत इन पापियों को धिक्कार है । अरे ये उपद्रव करनेवांले तो वे ही आततायी अग्निभूति और वायुभूति हैं || १०३ - १०४॥ अग्निभूति और वायुभूति भी विचार करने लगे कि अहो ! महामुनिका यह कैसा उत्कृष्ट प्रभाव है कि जिन्होंने बलका दर्प रखनेवाले हम लोगोंको कीलकर स्थावर बना दिया || १०५ ॥ इस अवस्था से छुटकारा होनेपर यदि हम जीवित रहेंगे तो इन उत्तम मुनिराज के दर्शन अवश्य करेंगे ॥ १०६॥ इसी बीच में घबडाया हुआ सोमदेव अपनी अग्निला स्त्रीके साथ वहाँ आ पहुँचा और उन मुनिराजको प्रसन्न करने लगा ॥ १०७ ॥ पैर दबानेमें तत्पर दोनों ही स्त्री पुरुष, बार-बार प्रणाम करके तथा अनेक
१. मुनिसत्तमम् म० ।
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