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पद्मपुराणे
यथा चिरा लोके सिंहदेवाग्निनामकाः । तथामी विरतेभ्रंष्टाः ब्राह्मणा नामधारकाः ॥ ८३ ॥ अमी सुश्रमणा धन्या ब्राह्मणाः परमार्थतः । ऋषयः संयता धीराः चान्ता दान्ता जितेन्द्रियाः ॥ ८४॥ भदन्तास्त्यक्तसन्देहा भगवन्तः सतापसाः । मुनयो यतयो वीरा लोकोत्तरगुणस्थिताः ॥ ८५॥ परिव्रजन्ति ये मुक्तिं भवहेतौ परिग्रहे । ते परिवाजका ज्ञेया निर्ग्रन्था एव निस्तमाः ॥ ८६ ॥ तपसा क्षपयन्ति स्वं क्षीणरागाः क्षमान्विताः । क्षिण्वन्ति च यतः पापं क्षपणास्तेन कीर्त्तिताः ॥८७॥ यमिनो वीतरागाश्च निर्मुक्ताङ्गा निरम्बराः । योगिनो ध्यानिनो बन्धा ज्ञानिनो निःस्पृहा बुधाः ॥८८॥ निर्वाणं साधयन्तीति साधवः परिकीर्तिताः । भाचार्या यत्सदाचारं चरन्त्याचारयन्ति च ॥८१॥ अनगारगुणोपेता भिक्षवः शुद्धभिक्षया । श्रमणाः 'सितकर्माणः परमश्रमवर्त्तिनः ॥ ६० ॥ इति साधुस्तुतिं श्रुखा तथा निन्दनमात्मनः । रहः स्थितौ विलक्षौ च विमानौ विगतप्रभो ॥११॥ गते च सवितर्यस्तं प्रकाशनसुदुःखितौ । अन्विष्यन्तौ गतौ स्थानं यत्रासौ भगवान् स्थितः ॥ १२ ॥ निःसङ्गः सङ्घमुत्सृज्य वनैकान्तेऽतिगह्वरे । करङ्कः सङ्कटेऽत्यन्तं विवित्रचितिकाचिते ॥१३॥
क्रव्याच्छ्रापदनादाढ्ये पिशाचभुजगाकुले । सूचीभेदतमश्छने महाबीभत्स दर्शने ॥ १४ ॥ एवंविधे श्मशानेऽसौ निर्जन्तुनि शिलातले । पापाभ्यामीक्षितस्ताभ्यां प्रतिमास्थानमास्थितः ॥ ६५ ॥
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प्रवृत्त हैं तथा जो निरन्तर कुशीलमें लीन रहते हैं वे केवल यह कहते हैं कि हम ब्राह्मण हैं परन्तु क्रिया से ब्राह्मण नहीं हैं ॥ ८२ ॥ जिस प्रकार कितने ही लोग सिंह, देव अथवा अग्नि नामके धारक हैं उसी प्रकार व्रतसे भ्रष्ट रहनेवाले ये लोग भी ब्राह्मण नामके धारक हैं इनमें वास्तविक ब्राह्मणत्व कुछ भी नहीं है ॥ ८३ ॥ जो ऋषि, संयत, धीर, क्षान्त, दान्त और जितेन्द्रिय हैं ऐसे ये मुनि ही धन्य हैं तथा वास्तविक ब्राह्मण हैं ॥ ८४ ॥ जो भद्रपरिणामी है, संदेहसे रहित हैं, ऐश्वर्य सम्पन्न हैं, अनेक तपस्वियोंसे सहित हैं, यति हैं और वीर हैं ऐसे मुनि ही लोकोत्तर गुणोंके धारण करनेवाले हैं ॥८५॥ जो परिग्रहको संसारका कारण समझ उसे छोड़ मुक्तिको प्राप्त करते हैं वे परिव्राजक कहलाते हैं सो यथार्थ में मोहरहित निर्ग्रन्थ मुनि ही परिव्राजक हैं ऐसा जानना चाहिए ! ॥ ८६ ॥ चूँकि ये मुनि क्षीणराग तथा क्षमासे सहित होकर तपके द्वारा अपने आपको कृश करते हैं, पापको नष्ट करते हैं इसलिए क्षपण कहे गये हैं ||७|| ये सब यमी, वीतराग, निर्मुक्तशरीर, निरम्बर, योगी, ध्यानी, ज्ञानी, निःस्पृह और बुध हैं अतः ये ही वन्दना करने योग्य हैं ॥८॥ चूँकि ये निर्वाणको सिद्ध करते हैं इसलिए साधु कहलाते हैं, और उत्तम आचारका स्वयं आचरण करते हैं तथा दूसरोंको भी आचरण कराते हैं इसलिए आचार्य कहे जाते हैं ||६|| ये गृहत्यागी के गुणों सहित हैं तथा शुद्ध भिक्षासे भोजन करते हैं इसलिए भिक्षुक कहलाते हैं और उज्ज्वल कार्य करनेवाले हैं, अथवा कर्मोंका नष्ट करनेवाले हैं तथा परम निर्दोष श्रममें वर्तमान हैं इसलिए श्रमण कहे जाते हैं ॥६०॥ इस प्रकार साधुओंकी स्तुति और अपनी निन्दा सुनकर वे अहंकारी विप्र पुत्र लज्जित, अपमानित तथा निष्प्रभ हो एकान्तमें जा बैठे ॥ ६१ ॥
अथानन्तर जो अपने शृगालादि पूर्व भवोंके उल्लेखसे अत्यन्त दुखी थे ऐसे दोनों पुत्र सूर्य अस्त होनेपर खोज करते हुए उस स्थानपर पहुँचे जहाँ कि वे भगवान् नन्दिवर्धन मुनीन्द्र विराजमान थे ||२|| वे मुनीन्द्र संघ छोड़, निःस्पृह हो वनके एकान्त भागमें स्थित उस श्मशान प्रदेश में विद्यमान थे कि जो अत्यधिक गर्तों से युक्त था, नरकङ्कालोंसे परिपूर्ण था, नाना प्रकारकी चिताओंसे व्याप्त था, मांसभोजी वन्य पशुओं के शब्द से व्याप्त था, पिशाच और सर्पोंसे आकीर्ण था, सुईके द्वारा भेदने योग्य - - गाढ अन्धकारसे आच्छादित था, और जिसका देखना तीव्र घृणा उत्पन्न करनेवाला था । ऐसे श्मशान में जीव-जन्तु रहित शिलातलपर प्रतिमायोग से विराज
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१. सितं विनाशितं श्री० टि० । २. प्रकाशनं शृगालादिकथनं श्री० टिं० । ३. क्रव्यश्वापद म० । For Private & Personal Use Only
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