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पद्मपुराणे
ग्रामस्यैतस्य सीमान्ते वनस्थल्यामुभौ समम् । अन्योन्यानुरतावास्तां शृगालौ विकृताननौ ॥ ५५॥ आसीदत्रैव च ग्रामे चिरवासः कृषीबलः । ख्यातः प्रामरको नाम गतोऽसौ क्षेत्रमन्यदा ॥ ५६ ॥ पुनरेमीति सञ्चिन्त्य मानावस्ताभिलाषिणि । त्यक्त्वोपकरणं क्षेत्रे सङ्गतः क्षुधितो गृहम् ॥ ५७॥ तावदञ्जनशैलाभाः प्लावयन्तो महीतलम् । अकस्मादुन्नता मेघा ववषु र्नक्कवासरम् ||५६८ ॥ प्रशान्ता सप्तरात्रेण रात्रौ तमसि भीषणे । जम्बुकौ तौ विनिष्क्रान्तौ गहनाददितौ क्षुधा ॥५३॥ अथोपकरणं क्लिन कर्दमोपलसङ्गतम् । तत्ताभ्यां भक्षितं सर्वं प्राप्तौ चोदरवेदनाम् ॥६०॥ अकामनिर्जरायुक्तौ वर्षानिलसमाहतौ । ततः कालं गतौ जातौ सोमदेवस्य नन्दनौ ॥ ६१ ॥ स च प्रामरकः प्राप्तोऽन्वेषकोऽपश्यदेतकौ । निर्जीवौ जम्बुकौ तेन गृहीत्वा जनितौ इती ॥६२॥ अचिरेण मृतश्चासौ सुतस्यैवाभवत्सुतः । जातिस्मरत्वमासाद्य मूकीभूय व्यवस्थितः ॥ ६३॥ पुत्रं पितुरिति ज्ञात्वेत्याहरामि कथं स्वहम् । स्नुषां च मातुरित्यस्माद्धेतोमौनमुपाश्रितः ॥ ६४ ॥ यदि न प्रत्ययः सम्यक् ततिष्ठत्यसावयम् । मध्ये स्वजनवर्गस्य द्विजो मां द्रष्टुमागतः ॥ ६५ ॥ आहूय गुरुणा चोक्तः स त्वं प्रामरकस्तथा । आसीस्त्वमधुना जातस्तोकस्यैव शरीरजः ॥ ६६ ॥ संसारस्य स्वभावोऽयं रङ्गमध्ये यथा नटः । राजा भूत्वा भवेद्भृत्यः प्रेष्यश्च प्रभुतां व्रजेत् ॥ ६७ ॥ एवं पिताऽपि तोकत्वमेति तोकश्च तातताम् । माता पत्नीत्वमायाति पत्नी चायाति मातृताम् ॥ ६८ ॥
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इस गाँव की सीमा के पास वनकी भूमि में दो शृगाल साथ- साथ रहते थे। वे दोनों ही परस्पर एक दूसरे से अधिक प्रेम रखते थे तथा दोनों ही विकृत मुखके धारक थे ॥ ५५॥ इसी गाँव में एक प्रामरक नामका पुराना किसान रहता था। वह एक दिन अपने खेतपर गया । जब सूर्यास्तका समय आया तब वह भूखसे पीड़ित होकर घर गया और अभी वापिस आता हूँ यह सोचकर अपने उपकरण खेतमें ही छोड़ आया || ५६-५७।। वह घर आया नहीं कि इतनेमें अकस्मात् उठे तथा अज्जनगिरिके समान काले बादल पृथिवीतलको डुबाते हुए रात-दिन बरसने लगे । वे मेघ सात दिनमें शान्त हुए अर्थात् सात दिन तक झड़ी लगी रही । ऊपर जिन दो शृगालोंका उल्लेख कर आये हैं वे भूखसे पीड़ित हो रात्रिके घनघोर अन्धकार में वन से बाहर निकले ।।५८-५६॥
अथानन्तर वर्षा से भींगे और कीचड़ तथा पत्थरोंमें पड़े वे सब उपकरण जिन्हें कि किसान छोड़ आया था दोनों शृगालोंने खा लिये । खाते होके साथ उनके उदरमें भारी पीड़ा उठी । अन्तमें वर्षा और वायुसे पीड़ित दोनों शृगाल अकामनिर्जराकर मरे और सोमदेव ब्राह्मणके पुत्र हुए ।। ६०-६१ ॥ तदनन्तर वह प्रामरक किसान अपने उपकरण ढूँढ़ता हुआ खेत में पहुँचा तो वहाँ उसने इन मरे हुए दोनों शृगालोंको देखा। किसान उन मृतक शृगालोंको लेकर घर गया और वहाँ उसने उनकी मशकें बनाई ॥ ६२॥ | वह प्रामरक भी जल्दी ही मर गया और मरकर अपने ही पुत्रके पुत्र हुआ । उस पुत्रको जाति-स्मरण हो गया जिससे वह गूँगा बनकर रहने लगा ॥६३॥ ‘मैं अपने पूर्वभव के पुत्रको पिता के स्थान में समझ कर कैसे बोलूँ तथा पूर्वभवकी पुत्र वधूको माता के स्थान में जानकर कैसे बोलूँ' यह विचार कर ही वह मौनको प्राप्त हुआ है ॥ ६४ ॥ यदि तुम्हें इस बातका ठीक ठीक विश्वास नहीं है तो वह ब्राह्मण मेरे दर्शन करनेके लिए यहाँ आया है तथा अपने परिवार के बीच में बैठा है || ६५ || मुनिराजने उसे बुलाकर कहा कि तू वही प्रामरक किसान है और इस समय अपने पुत्रका ही पुत्र हुआ है || ६६ || यह संसारकां स्वभाव है । जिस प्रकार रङ्गभूमिके मध्य नट राजा होकर दास बन जाता है और दास प्रभुताको प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार पिता भी पुत्रपनेको प्राप्त हो जाता है, और पुत्र पितृ पर्याय को प्राप्त
१. त्वक्तोपकरणं म० । २. पुत्रः म० । ३. पुत्रत्वम् ।
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