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नवोसरशतं पर्व
कस्यचित्वथ कालस्य विहरन् पृथिवीमिमाम् । बहुभिः साधुभिर्गुप्तः सम्प्राप्तो नन्दिवर्द्धनः ॥४६॥ मुनिः स चावधिज्ञानात्समस्तं जगदीक्षते । अध्युवास बहिर्ग्राममुद्यानं साधुसम्मतम् ॥ ४२ ॥ ततश्चागमनं श्रुत्वा श्रमणानां महात्मनाम् । शालिग्रामजनो भूत्या सर्व वनर्ययौ ॥ ४३ ॥ अपृच्छतां ततो वह्निवायुभूती विलोक्य तम् । क्वायं जनपदो याति सुसङ्कीर्णः परस्परम् ॥४४॥ ताभ्यां कथितमन्येन मुनिः प्राप्तो निरम्बरः । तस्यैष वन्दनां कत्तु मखिलः प्रस्थितो जनः ॥४५॥ अग्निभूतिस्ततः क्रुद्धः सह भ्रात्रा विनिर्गतः । विवादे श्रमणान्सर्वान् जयामीति वचोऽवदत् ॥४६॥ उपगम्य च साधूनां मुनीन्द्रं मध्यवर्त्तिनम् । अपश्यद्महताराणां मध्ये चन्दनिवोदितम् ॥४७॥ प्रधानसंयतेनैतौ प्रोक्तौ सात्यचिना ततः । एवमागच्छतां विप्रौ किञ्चिद्विधिनु गुरौ ॥४८॥ उवाच प्रहसन्नग्निर्भवद्भिः किं प्रयोजनम् । जगादागतयोरत्र दोषो नास्तीति संयतः ॥४६॥ द्विजेनैकेन च प्रोक्तमेतान् श्रमणपुङ्गवान् । वादे जेतुमुपायातौ दूरे किमधुना स्थितौ ॥५०॥ एवमस्त्विति सामर्षी मुनीन्द्रस्य पुरः स्थितौ । ऊचतुश्व समुझद्धौ किं वेत्सीति पुनः पुनः ॥५१॥ सावधिभगवानाह भवन्तावागतौ कुतः । ऊचतुस्तौ न ते ज्ञातौ शालिग्रामात्किमागतौ ॥५२॥ मुनिराहावगच्छामि शालिग्रामादुपागतौ । अनादिजन्मकान्तारे भ्रमन्तावागतौ कुतः ॥ ५३ ॥ तो समूचतुरन्योऽपि को वेतीति ततो मुनिः । जगाद शृणुतां विप्रावधुना कथयाम्यहम् ॥ ५४ ॥
अथानन्तर किसी समय अनेक साधुओं के साथ इस पृथ्वी पर विहार करते हुए नन्दिवर्धन नामक मुनिराज उस शालिग्राम में आये ||४१ || वे मुनि अवधि-ज्ञानसे समस्त जगत्को देखते थे तथा आकर गाँवके बाहर मुनियोंके योग्य उद्यानमें ठहर गये ||४२|| तदनन्तर उत्कृष्ट आत्मा धारक मुनियोंका आगमन सुन शालिग्रामके सब लोग वैभव के साथ बाहर निकले ||४३|| तत्पश्चात् अग्निभूति और वायुभूतिने उन नगरवासी लोगोंको जाते देख किसीसे पूछा कि ये गाँवके लोग परस्पर एक दूसरे से मिल कर समुदाय रूप में कहाँ जा रहे हैं ? ॥४४॥ | तब उसने उन दोनों से कहा कि एक निर्वस्त्र दिगम्बर मुनि आये हुए हैं उन्हीं की वन्दना करनेके लिए वे सब लोग जा रहे हैं ||४५|| तदनन्तर क्रोध से भरा अग्निभूति, भाईके साथ निकल कर बाहर आया और कहने लगा कि मैं समस्त मुनियोंको वाद में अभी जीतता हूँ ॥ ४६॥ तत्पश्चात् पास जाकर उसने ताराभ के बीच में उदित चन्द्रमा के समान मुनियोंके बीच में बैठे हुए उनके स्वामी नन्दिवर्द्धन मुनिको देखा ॥४७॥ तदनन्तर सात्यकि नामक प्रधान मुनिने उनसे कहा कि हे विप्रो ! आओ और गुरु से कुल पूछो ! ॥ ४८|| तब अग्निभूतिने हँसते हुए कहा कि हमें आप लोगोंसे क्या प्रयोजन है ? इसके उत्तर में मुनिने कहा कि यदि आप लोग यहाँ आ गये हैं तो इसमें दोष नहीं है ॥४६॥ उसी समय एक ब्राह्मगने कहा कि ये दोनों इन मुनियोंको बादमें जीतनेके लिए आये हैं इस समय दूर क्यों बैठे हैं ॥५०॥ तदनन्तर 'अच्छा ऐसा ही सही' इस प्रकार कहते हुए क्रोध से युक्त दोनों ब्राह्मण, मुनिराज के सामने बैठ गये और बड़े अहंकारमें चूर होकर बार-बार कहने लगे कि बोल क्या जानता है ? बोल क्या जानता है ? ॥ ५१ ॥ तदनन्तर अवधिज्ञानी मुनिराज ने कहा कि आप दोनों कहाँ से आ रहे हैं ? इसके उत्तर में विप्र-पुत्र बोले कि क्या तुझे यह भी ज्ञात नहीं है कि हम दोनों शालिग्रामसे आये हैं || ५२ ॥ तदनन्तर मुनिराजने कहा कि आप शालिग्राम से आये हैं यह तो मैं जानता हूँ मेरे पूछनेका अभिप्राय यह है कि इस अनादि संसाररूपी वनमें घूमते हुए आप इस समय किस पर्याय से आये हैं ? ॥५३॥ तब उन्होंने कहा कि इसे क्या और भी कोई जानता है या मैं ही जानूँ । तत्पश्चात् मुनिराजने कहा कि अच्छा विप्रो ! सुनो मैं कहता हूँ || ५४ ।।
१. सत्युकिना ज०, ख । सत्यकिना क० । २. विधुननं क० ।
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