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नवोत्तरशतं पर्व
अवलीनकगण्डान्ता सम्बद्धा केवलं त्वचा । उस्कटभ्रतटा शुष्का नदीव नितरामभात् ॥१३॥ युगमानमहीपृष्ठन्यस्तसौम्यनिरीक्षणा । तपःकारणदेहाथ भिक्षां चक्रे यथाविधि ॥१४॥ 'अन्यथास्वमिवानीता तपसा साधुचेष्टितानात्मीयपरकीयेन जनेनाऽज्ञायि गोचरे ॥१५॥ दृष्ट्वा तामेव कुर्वन्ति तस्या एव सदा कथाम् । न च प्रत्यभिजानन्ति तदा तामार्यिकां जनाः॥१६॥ एवं द्वाषष्टिवर्षाणि तपः कृत्वा समुन्नतम् । त्रयस्त्रिंशहिनं कृत्वा परमाराधनाविधिम् ॥१७॥ उच्छिष्टं संस्तरं यद्वत्परित्यज्य शरीरकम् । आरणाच्युतमारुह्य प्रतीन्द्रत्वमुपागमत् ॥१८॥ माहात्म्यं पश्यतेदृक्ष धर्मस्य जिनशासने । जन्तुः स्त्रीत्वं यदुज्झित्वा पुमान् जातः सुरप्रभुः ॥१६॥ तत्र कल्पे मणिच्छायासमुद्योतितपुष्करे । काञ्चनादिमहागव्यविचित्रपरमाद्भुते ॥२०॥ सुमेरुशिखराकारे विमाने परिवारिणि । परमैश्वर्यसम्पन्ना सम्प्राप्ता त्रिदशेन्द्रताम् ॥२१॥ देवीशतसहस्राणां नयनानां समाश्रयः । तारागणपरीवारः शशाङ्क इव राजते ॥२२॥ इत्यन्यानि च साधूनि चरितानि नरेश्वरः । पापघातीनि शुश्राव पुराणानि गणेश्वरात् ॥२३॥ राजोचे कस्तदा नाथो देवानामारणाच्युते । बभौ यस्य प्रतिस्पर्धी सीतेन्द्रोऽपि तपोबलात् ॥२४॥ मधुरित्याह भगवान् भ्राता यस्य स कैटभः । येन भुक्तं महेश्वयं द्वाविंशत्यब्धिसम्मितम् ॥२५॥ चतुःषष्टिसहस्त्रेषु किञ्चिदनेष्वनुक्रमात् । वर्षाणां समतीतेषु सुकृतस्यावशेषतः ॥२६॥
के समान जान पड़ती थी, जिसके कपोल भीतर घुस गये थे, जो केवल त्वचासे आच्छादित थी, जिसका भ्रूकुटितल ऊँचा उठा हुआ था तथा उससे जो सूखी नदीके समान जान पड़ती थी। युग प्रमाण पृथिवी पर जो अपनी सौम्यदृष्टि रखकर चलती थी, जो तपके कारण शरीरकी रक्षाके लिए विधिपूर्वक भिक्षा ग्रहण करती थी, जो उत्तम चेष्टासे युक्त थी, तथा तपके द्वारा उस प्रकार अन्यथाभावको प्राप्त हो गई थी कि विहारके समय उसे अपने पराये लोग भी नहीं पहिचान पाते थे ॥६-१५॥ ऐसी उस सीताको देखकर लोग सदा उसीकी कथा करते रहते थे। जो लोग उसे एक बार देखकर पुनः देखते थे वे उसे 'यह वही है' इस प्रकार नहीं पहिचान पाते थे ॥१६॥ इस प्रकार बासठ वर्ष तक उत्कृष्ट तप कर तथा तैतीस दिनकी उत्तम सल्लेखना धारणकर उपभुक्त विस्तरके समान शरीरको छोड़कर वह आरण-अच्युत युगलमें आरूढ़ हो प्रतीन्द्र पदको प्राप्त हुई ॥१७-१८॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो ! जिन-शासनमें धर्मका ऐसा माहात्म्य देखो कि यह जीव स्त्री पर्यायको छोड़ देवोंका स्वामी पुरुष हो गया ॥१६॥
जहाँ मणियोंकी कान्तिसे आकाश देदीप्यमान हो रहा था तथा जो सुवर्णादि महाद्रव्योंके कारण विचित्र एवं परम आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला था ऐसे उस अच्युत स्वर्गमें वह अपने परिवारसे युक्त सुमेरुके शिखरके समान विमानमें परम ऐश्वर्यसे सम्पन्न प्रतीन्द्र पदको प्राप्त हुई ॥२०-२१॥ वहाँ लाखों देवियोंके नेत्रोंका आधारभूत वह प्रतीन्द्र, तारागणोंके परिवारसे युक्त चन्द्रमाके समान सुशोभित हो रहा था ।।२२।। इस प्रकार राजा श्रेणिकने श्रीगौतम गणधरके मुखारविन्दसे अन्य उत्तमोत्तम चरित्र तथा पापोंको नष्ट करनेवाले अनेक पुराण सुने ॥२३॥ तदनन्तर राजा श्रेणिकने कहा कि उस समय आरणाच्युत कल्पमें देवोंका ऐसा कौन अधिपति अर्थात् इन्द्र सुशोभित था कि सीतेन्द्र भी तपोबलसे जिसका प्रतिस्पर्धी था ॥२४॥ इसके उत्तरमें गणधर भगवान्ने कहा कि उस समय वह मधुका जीव आरणाच्युत स्वर्गका इन्द्र था, जिसका भाई कैटभ था तथा जिसने बाईस सागर तक इन्द्रके महान ऐश्वर्यका उपभोग किया था ॥२शा अनुक्रमसे कुछ अधिक चौंसठ हजार वर्ष बीत जानेपर अवशिष्ट पुण्यके प्रभावसे वे मधु
१. अन्यथामिवानीता म० [अन्यथात्वमिवानीता ] इति पाठः सम्यक् प्रतिभाति । अन्यथामिव सा नीता ज०। ४२-३
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