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अष्टोत्तरशतं पर्व
विश्वाप्रियङ्गुनामानौ ज्ञेये सुवनिते तयोः । आसीद्गृहस्थभावश्च शंसनीयो मनीषिणाम् ॥४१॥ साधौ श्रीतिलकाभिख्ये दानं दत्त्वा सुभावनौ । त्रिपल्यभोगिता प्राप्तौ सस्त्रीकावुत्तरे कुरौ ॥४२॥ साधुसद्दानवृक्षोत्थमहाफलसमुद्भवम् । भुक्त्वा भोगं परं तत्र प्राप्तावीशानवासिताम् ॥४३॥ भुक्तभोगौ ततश्च्युत्वा बोधिलक्ष्मीसमन्वितौ । क्षीणदुर्गतिकर्माणौ जातौ प्रियहितङ्करौ ॥४॥ चतुष्कर्ममयारण्यं शुक्लध्यानेन वह्निना । निर्दह्य निर्वृति प्राप्तो मुनीन्द्रो रतिवर्द्धनः ॥४॥ कथितौ यो समासेन वीरौ प्रियहितङ्करौ । अवेयकाच्युतावेतौ भव्यौ तौ लवणाङ्कुशौ ॥४६॥ राजन् सुदर्शना देवी तनयात्यन्तवत्सला । भर्तृपुत्रवियोगार्ता स्त्रीस्वभावानुभावतः ॥४७॥ निदानशृङ्खलाबद्धा भ्राम्यन्ती दुःखसङ्कटम् । कृच्छ्रे स्त्रीत्वं विनिर्जित्य भुक्त्वा विविधयोनिषु ॥४८॥ अयं क्रमेण सम्पन्नो मनुष्यः पुण्यचोदितः । सिद्धार्थों धर्मसत्तात्मा विद्याविधिविशारदः ॥४६॥ तत्पूर्वस्नेहसंसक्तौ बालकौ लवणाङकुशौ । अनेन संस्कृतौ जातौ त्रिदशेरपि दुर्जयो ॥५०॥
उपजातिवृत्तम् एवं विदित्वा सुलभौ नितान्तं जीवस्य लोके पितरौ सदैव । कर्त्तव्यमेतदुविषां प्रयत्नाद्विमुच्यते येन शरीरदुःखात् ॥५१॥ विमुच्य सर्व भववृद्धिहेतुं कर्मोरुदुःखप्रभवं जुगुप्सम् ।
कृत्वा तपो जैनमतोपदिष्टं रविं तिरस्कृत्य शिवं प्रयात ॥५२॥ इत्याचे श्रीपद्मपुराणे रविषेणाचार्यप्रोक्ते लवणाङ् कुशपूर्वभवाभिधानं नामाष्टोत्तरशतं पर्व ॥१०॥ और सुदेव नामके गुणी पुत्र थे ॥३६-४०॥ विश्वा और प्रियङ्गु नामकी उनकी स्रियाँ थीं जिनके कारण उनका गृहस्थ पद विद्वज्जनोंके द्वारा प्रशंसनीय था ॥४१॥ श्रीतिलक नामक मुनिराजके लिए उत्तम भावोंसे दान देकर वे स्त्री सहित उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमिमें तीन पल्यकी आयुको प्राप्त हुए ॥४२॥ वहाँ साधु-दान रूपी वृक्षसे उत्पन्न महाफलसे प्राप्त हुए उत्तम भोग भोग कर वे ऐशान स्वर्ग में निवासको प्राप्त हुए ॥४३॥ तदनन्तर जो आत्मज्ञान रूपी लक्ष्मी से सहित थे, तथा जिनके दुर्गतिदायक कर्म क्षीण हो गये थे ऐसे दोनों देव, वहाँसे भोग भोग कर च्युत हुए तथा पूर्वोक्त राजा रतिवर्धनके प्रियङ्कर और हितकर नामक पुत्र हुए ॥४४॥
रतिवर्धन मुनिराज शुक्ल ध्यान रूपी अग्निके द्वारा अघातिया कर्म रूपी वनको जला कर निर्वाणको प्राप्त हुए ॥४५॥ संक्षेपसे जिन प्रियङ्कर और हितकर वीरोंका वर्णन किया गया है वे अवेयकसे ही च्युत हो भव्य लवण और अंकुश हुए ॥४६।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! काकन्दीके राजा रतिवर्धनकी जो पुत्रोंसे अत्यन्त स्नेह करनेवाली सुदर्शना नामकी रानी थी वह पति और पुत्रोंके वियोगसे पीड़ित हो स्त्रीस्वभावके कारण निदानबन्ध रूपी साँकलसे बद्ध होती हुई दुःख रूपी सङ्कट में घूमती रही और नाना योनियोंमें स्त्री पर्यायका उपभोग कर तथा बड़ी कठिनाईसे उसे जीत कर क्रमसे मनुष्य हुई। उसमें भी पुण्यसे प्रेरित धार्मिक तथा विद्याओंकी विधिमें निपुण सिद्धार्थ नामक तुल्लक हुई ॥४७-४६॥ उनमें पूर्व स्नेह होनेके कारण इस क्षुल्लकने लवण और अंकुश कुमारोंका विद्याओंसे इस प्रकार संस्कृत--सुशोभित किया जिससे कि वे देवोंके द्वारा भी दुजय हो गये ॥५०॥ गौतम स्वामी कहते है कि इस प्रकार 'संसारमें प्राणीको मातापिता सदा सुलभ हैं। ऐसा जान कर विद्वानोंको प्रयत्नपूर्वक ऐसा काम करना चाहिए कि जिससे वे शरीर सम्बन्धी दुःखसे छूट जावें ॥५१॥ संसार वृद्धिके कारण, विशाल दुःखोंके जनक एवं निन्दित समस्त कर्मको छोड़ कर हे भव्यजनो! जैनमतमें कहा हुआ तप कर तथा सूर्यको तिरस्कृत कर मोक्षकी ओर प्रयाण करो ॥५२॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य द्वारा कथित, पद्मपुराणमें लवणाङ कुशके
पूर्वभवोंका वर्णन करनेवाला एक सौ आठवाँ पर्व समाप्त हुभा ॥१०८॥
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