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पद्मपुराणे जगौ च वर्द्धसे दिष्टया देवेनो रतिवर्द्धनः । वासौ कासाविति स्फीत: तुष्टः कशिपुरभ्यधात् ॥२७॥ उद्याने स्थित इत्युक्ते सुतरां प्रमदान्वितः । निर्ययावर्धपायेन सोऽन्तःपुरपुरःसरः ॥२८॥ जयत्यजेयराजेन्द्रो रतिवर्द्धन इत्यभूत् । उत्सवो दर्शने तस्य कशिपोर्दानमानतः ॥२६॥ संयुगे सर्वगुप्तस्य जीवतो ग्रहणं ततः । रतिवर्द्धनराजस्य काकन्यां राज्यसङ्गमः ॥३०॥ विज्ञाय ते हि जीवन्तं स्वामिनं रतिवर्द्धनम् । सामन्ताः सङ्गता 'मुक्त्वा सर्वगुप्तं रणान्तरे ॥३॥ पुनर्जन्मोत्सवश्चक्रे रतिवर्द्धनभूभृतः । महद्भिर्दानसन्मानैर्देवतानां च पूजनैः ॥३२॥ नीतः प्रत्यन्तवासित्वं मृततुल्यममात्यकः । दर्शनेनोज्झितः पापः सर्वलोकविगर्हितः ॥३३॥ कशिपुः काशिराजोऽसौ वाराणस्यां महाद्युतिः । रेमे परमया लचम्या लोकपाल इवापरः ॥३४॥ अथ भोगविनिविण्णः कदाचिद्रतिवर्द्धनः। श्रमणत्वं भदन्तस्य सुभानोरन्तिकेऽग्रहीत् ॥३५॥ आसीत्तया कृतो भेदः सर्वगुप्तेन निश्चितः । ततो विद्वेष्यता प्राप्ता परमं तस्य भामिनी ॥३६॥ नाहं जाता नरेन्द्रस्य न पत्युरिति शोकिनी । अकामतपसा जाता राक्षसी विजयावली ॥३७॥ उपसर्गे तयोदारे क्रियमाणेतिरतः । सुध्याने कैवलं राज्यं सम्प्राप्तो रतिवर्द्धनः ॥३८॥. श्रामण्यं विमलं कृत्वा प्रियङ्करहितकरौ । अवेयकस्थिति प्राप्तौ चतुर्थभवतः परम् ॥३६॥ शामल्या दामदेवस्य तत्रैव पुरि नन्दनौ । वसुदेवसुदेवाख्यौ गुण्यावस्थामितौ द्विजौ ॥४०॥
रतिवर्धन राजाके द्वारा कशिपुके प्रति भेजा हुआ एक युवा दण्ड हाथमें लिये वहाँ आया और बोला कि हे देव ! आप भाग्यसे बढ़ रहे हैं क्योंकि राजा रतिवर्द्धन यहाँ विद्यमान है।
इसके उत्तरमें हर्षसे फूले हुए कशिपुने सन्तुष्ट होकर कहा कि वे कहाँ हैं ? वे कहाँ हैं ? २६-२७।। 'उद्यानमें स्थित हैं। इस प्रकार कहनेपर अत्यन्त हर्षसे युक्त कशिपु अन्तःपुरके साथ अर्घ तथा पादोदक साथ ले निकला ॥२८।। 'जो किसीके द्वारा जीता न जाय ऐसा राजाधिराज रतिवर्धन जयवन्त हैं। यह सोचकर उसके दर्शन होनेपर कशिपुने दान-सन्मान आदिसे बड़ा उत्सव किया ॥२६॥ तदनन्तर युद्ध में सर्वगुप्त जीवित पकड़ा गया और राजा रतिवर्धनको राज्यकी प्राप्ति हुई ॥३०॥ जो सामन्त पहले सर्वगुप्तसे आ मिले थे वे स्वामी रतिवर्धनको जीवित जानकर रणके बीच में ही सर्वगुप्तको छोड़ उसके पास आ गये थे ॥३१।। बड़े-बड़े दान सन्मान देवताओंका पूजन आदिसे रतिवर्धन राजाका फिरसे जन्मोत्सव किया गया ॥३२॥ और सर्वगुप्त मन्त्री चाण्डालके समान नगरके बाहर बसाया गया, वह मृतकके समान निस्तेज हो गया, उस पापीकी ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता था तथा सर्वलोकमें वह निन्दित हुआ ॥३३।। महाकान्तिको धारण करनेवाला काशीका राजा कशिपु वाराणसीमें उत्कृष्ट लक्ष्मीसे ऐसी क्रीड़ा करता था मानो दूसरा लोकपाल ही हो ||३४||
___ अथानन्तर किसी समय राजा रतिवर्धनने भोगोंसे विरक्त हो सुभानु नामक मुनिराजके समीप जिनदीक्षा धारण कर ली ॥३।। सर्वगुप्तने निश्चय कर लिया कि यह सब भेद उसकी स्त्री विजयावलीका किया हुआ है इससे वह परम विद्वेष्यताको प्राप्त हुई अर्थात् मन्त्रीने अपनी स्त्रीसे अधिक द्वेष किया ॥३६॥ विजयावलीने देखा कि मैं न तो राजाकी हो सकी और न पतिकी हो रही इसीलिए शोकयुक्त हो अकाम तप कर वह राक्षसी हुई ॥३७॥ तीव्र वैरके कारण उसने रतिवर्धन मुनिके ऊपर घोर उपसर्ग किया परन्तु वे उत्तम ध्यान में लीन हो केवलज्ञान रूपी राज्यको प्राप्त हुए ॥३८॥
राजा रतिवर्धनके पुत्र प्रियङ्कर और हितकर निर्मल मुनिपद धारण कर प्रैवेयकमें उत्पन्न हुए। इस भवसे पूर्व चतुर्थ भवमें वे शामली नामक नगरमें दामदेव नामक ब्राह्मणके वसुदेव
१. मुक्ताः म० । २. -मिमी म ।
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