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अष्टोत्तरशतं पर्व
पग्रस्य चरितं राजा श्रुत्वा दुरितदारणम् । निर्मुक्तसंशयात्मानं व्यशोचदिति चेतसा ॥१॥ निरस्तः सीतया दूरं स्नेहबन्धः स तादृशः । सहिष्यते महाचर्या सुकुमारा कथं नु सा ॥२॥ पश्य धात्रा' मृगाचौ तौ मात्रा विरहमाहृतौ । सर्वद्धिंद्युतिसम्पन्नौ कुमारौ लवणाङ्कुशौ ॥३॥ तातावशेषता प्राप्तौ कथं मातृवियोगजम् । दुःखं तौ विसहिष्येते निरन्तरसुखैधितौ ॥४॥ महौजसामुदाराणां विषमं जायते तदा । तत्र शेषेषु काऽवस्था ध्यारवेत्यूचे गणाधिपम् ॥५॥ सर्वज्ञेन ततो रटं जगत्प्रत्ययमागतम् । इन्द्रभूतिर्जगौ तस्मै चरितं लवणाङ्कुशम् ॥६॥ अभूच पुरि काकन्यामधिपो रतिवर्द्धनः । पत्नी सुदर्शना तस्य पुत्रौ प्रियहितङ्करौ ॥७॥ अमात्यः सर्वगुप्ताख्यो राज्यलचमीधुरन्धरः । ज्ञेयः प्रभोः प्रतिस्पर्धी वधोपायपरायणः ॥८॥ अमात्यवनिता रक्ता राजानं विजयावली । शनैरबोधयद्गत्वा पत्या कार्य समीहितम् ॥६॥ बहिरप्रत्ययं राजा श्रितः प्रत्ययमान्तरम् । अभिज्ञानं ततोऽवोचदेतस्मै विजयावली ॥१०॥ कलहं सदसि श्वोऽसौ समुत्कोपयिता तव । परस्त्रीविरतो राजा बुद्धय व पुनरग्रहीत् ॥११॥ अब्रवीण कथं मेऽसौ परं भक्तोऽपभाषते । विजयावलि सम्भाव्यं कदाचिदपि नेदृशम् ॥१२॥
अथानन्तर राजा श्रेणिक रामका पापापहारी चरित सुनकर अपने आपको संशययुक्त मानता हुआ मनमें इस प्रकार विचार करने लगा कि यद्यपि सीताने दूरतक बढ़ा हुआ उस प्रकारका स्नेहबन्धन तोड़ दिया है फिर भी सुकुमार शरीरकी धारक सीता महाचर्याको किस प्रकार कर सकेगी ? ॥१-२॥ देखो, विधाताने मृगके समान नेत्रोंको धारण करनेवाले, सर्वऋद्धि और कान्तिसे सम्पन्न दोनों लवणांकुश कुमारोंको माताका विरह प्राप्त करा दिया। अब पिता ही उनके शेष रह गये सो निरन्तर सुखसे वृद्धिको प्राप्त हुए दोनों कुमार माताके वियोगजन्य दुखको किस प्रकार सहन करेंगे ? ॥३-४॥ जब महाप्रतापी बड़े-बड़े पुरुषोंकी भी ऐसी विषम दशा होती है तब अन्य लोगोंकी तो बात ही क्या है ? ऐसा विचार कर श्रेणिक राजाने गौतम गणधरसे कहा कि सर्वज्ञदेवने जगत्का जो स्वरूप देखा है उसका मुझे प्रत्यय है- श्रद्धान है। तदनन्तर इन्द्रभूति गणधर, श्रेणिकके लिए लवणांकुशका चरित कहने लगे ॥५-६॥
उन्होंने कहा कि हे राजन् ! काकन्दी नगरीमें राजा रतिवर्धन रहता था। उसकी स्त्रीका नाम सुदर्शन था और उन दोनोंके प्रियङ्कर नामक दो पुत्र थे॥७॥ राजाका एक सर्वगुप्त नामका मन्त्री था जो यद्यपि राज्यलक्ष्मीका भार धारण करनेवाला था तथापि वह राजाके साथ भीतर ही भीतर स्पर्धा रखता था और उसके मारनेके उपाय जुटाने में तत्पर रहता था ॥८।। मन्त्रीकी स्त्री विजयावली राजामें अनुरक्त थी इसलिए उसने धीरेसे जाकर राजाको मन्त्रीकी सब चेष्टा बतला दीपा राजाने बाहा में तो विजयावलीकी बातका विश्वास नहीं किया किन्तु अन्तरङ्गमें उसका विश्वास कर लिया। तदनन्तर विजयावलीने राजाके लिए उसका चिह्न भी बतलाया ॥१०॥ उसने कहा कि मन्त्री कल सभामें आपकी कलहको बढ़ावेगा अर्थात् आपके प्रति बक-झक करेगा। परस्त्री विरत राजाने इस बातको बुद्धिसे ही पुनः ग्रहण किया अर्थात् अन्तरङ्गमें तो इसका विश्वास किया बाह्यमें नहीं ॥११।। बाह्यमें राजाने कहा कि हे विजयावलि ! वह तो मेरा
१. दैवेन ।
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