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पद्मपुराणे एवं सति विशुद्धामा प्रघ्रज्या समुपागता। कस्य नो जानकी जाता मनसः सौख्यकारिणी ॥५६॥ भन्योचे सखि पश्येमं वैदेगा पद्ममुज्झितम् । ज्योत्स्नया शशिनं मुक्तं दीप्त्या विरहितं रविम् ॥५७॥ अन्योचे किं परायत्तकान्तिरस्य करिष्यति । स्वयमेवातिकान्तस्य बलदेवस्य धीमतः ॥५६॥ काचिदूचे त्वया सीते किं कृतं पुरुषोत्तमम् । ईदृशं नाथमुज्झित्वा वज्रदारुणचित्तया ॥५६॥ जगावन्या परं सीता धन्या चित्तवती सती। यथार्थी या गृहानर्था निःसृता स्वहितोद्यता ॥६०॥ काचिदूचे कथं धीरौ स्वयेमौ सुकुमारको । रहितौ मानसानन्दौ सुभक्तौ सुकुमारकौ ॥६॥ कदाचिञ्चलति प्रेम न्यस्तं भर्तरि योषिताम् । स्वस्तन्यकृतपोषेषु जातेषु न तु जातुचित् ॥६२।। भन्योचे परमावेतो पुरुषौ पुण्यपोषणौ । किमत्र कुरुते माता स्वकर्मनिरते जने ॥६३॥ एवमादिकृतालापाः पनवीक्षणतत्पराः । न तृप्तियोगमासेदुर्मधुकर्य इव स्त्रियः ॥६॥ केचिबचमणमैक्षन्त जगदुश्च नरोत्तमाः । सोऽयं नारायणः श्रीमान्प्रभावाक्रान्तविष्टपः ॥६५॥ चक्रपाणिरयं राजा लचमीपतिरनुत्तमः । साक्षादरातिदाराणां वैधव्यव्रतविग्रहः ॥६६॥
आर्याजातिः एवं प्रशस्यमानौ नमस्यमानौ च पौरलोकसमू हैः । स्वभवनमनुप्रविष्टौ स्वयंप्रभं वरविमानमिव देवेन्द्रो ॥६७॥
की यही रीति है। इन्होंने जो किया है वह ठीक किया है ॥५५।। इस प्रकारको घटनासे निष्कलङ्क हो दीक्षा धारण करनेवाली जानकी किसके मनके लिए सुख उत्पन्न करनेवाली नहीं है ? ॥५६।। कोई कह रही थी कि हे सखि ! सीतासे रहित इन रामको देखो। ये चाँदनीसे रहित चन्द्रमा और दीप्तिसे रहित सूर्यके समान जान पड़ते हैं ॥५७।। कोई कह रही थी कि बुद्धिमान् राम स्वयं ही अत्यन्त सुन्दर हैं, दूसरेके आधीन होनेवाली कान्ति इनका क्या करेगी ? ॥८॥ कोई कह रही थी कि हे सोते ! ऐसे पुरुषोत्तम पतिको छोड़कर तूने क्या किया ? यथार्थमें तू वज्रके समान कठोर चित्तवाली है ॥५६|| कोई कह रही थी कि सीता परमधन्य, विवेकवती, पतिव्रता एवं यथार्थ स्त्री है जो कि आत्महितमें तत्पर हो घरके अनर्थसे निकल गई-दूर हो गई ॥६०॥ कोई कह रही थी कि हे सीते! तेरे द्वारा ये दोनों सुकुमार, मनको आनन्द देनेवाले तथा अत्यन्त भक्त पुत्र कैसे छोड़े गये ? ॥६१॥ कदाचित् भर्तापर स्थित स्त्रियोंका प्रेम विचलित हो जाता है परन्तु अपने दूधसे पुष्ट किये हुए पुत्रोंपर कभी विचलित नहीं होता ॥६२॥ कोई कह रही थी कि दोनों कुमार पुण्यसे पोषण प्राप्त करनेवाले परमोत्तम पुरुष हैं। यहाँ माता क्या करती है ? जब कि सब लोग अपने-अपने कर्ममें निरत हैं अर्थात् कर्मानुसार फल प्राप्त करते हैं ॥६३।। इस प्रकार वार्तालाप करनेवाली तथा पद्म अर्थात् राम (पक्षमें कमल ) के देखनेमें तत्पर स्त्रियाँ भ्रमरियोंके समान तृप्तिको प्राप्त नहीं हुई ।।६४॥ कितने ही उत्तम मनुष्य लक्ष्मगको देखकर कह रहे थे कि यह वह नारायण है कि जो अद्भुत लक्ष्मीसे सहित है, अपने प्रभावसे जिसने संसारको आक्रान्त कर रक्खा है, जो हाथमें चक्ररत्नको धारण करनेवाला है, देदीप्यमान है, लक्ष्मीपति है, सर्वोत्तम है और शत्रु स्त्रियोंका मानो साक्षात् शरीरधारी वैधव्य व्रत ही है ॥६५-६६।। इस प्रकार नगरवासी लोगोंके समूह प्रशंसा कर जिन्हें नमस्कार कर रहे थे ऐसे राम और लक्ष्मण अपने भवनमें उस तरह प्रविष्ट हुए जिस तरह कि दो इन्द्र स्वयं विमानमें प्रविष्ट होते हैं ॥६७॥ For Private & Personal Use Only
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