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अष्टोत्तरशतं पव
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ततोऽन्यत्र दिने चिह्न भावं ज्ञात्वा महीपतिः । क्षमानिवारणेनैव प्रेरयदुरितागमम् ॥१३॥ राजा क्रोशति मामेष इत्युक्त्वा प्रतिपत्तितः । सामन्तानभिनत्सर्वानमात्यः पापमानसः॥१४॥ राजवासगृहं रात्रौ ततोऽमात्यो महेन्धनः। अदीपयन्महोशस्तु प्रमादरहितः सदा ॥१५॥ प्राकारपुटगुह्येन प्रदेशेन सुरङ्गया। भायां पुत्रौ पुरस्कृत्य निःससार शनैः सुधीः ॥१६॥ यातश्च कशिपुं तेन काशीपुर्यां महीपतिम् । न्यायशीलं स्वसामन्तमुग्रवंशधुरन्धरम् ॥१७॥ राज्यस्थः सर्वगुप्तोऽथ दूतं सम्प्राहिणोद्यथा । कशिपो मां नमस्येति ततोऽसौ प्रत्यभापत ॥१८॥ 'स्वामिघातकृतो हन्ता दुःखदुर्गतिभाक् खलः । एवंविधो न नाम्नाऽपि कीर्त्यते सेव्यते कथम् ॥१६॥ सयोपित्तनयो दग्धो येनेशो रतिवर्द्धनः । स्वामिस्त्रीबालघातं तं न स्मत्तु मपि वर्तते ॥२०॥ पापस्यास्य शिरश्छित्वा सर्वलोकस्य पश्यतः । नन्वथैव करिष्यामि रतिवर्द्धननिष्क्रयम् ॥२१॥ एवं तं दूतमत्यस्य दूरं वाक्यमपास्य सः । अमूढो दुर्मतं यदस्थितः कर्त्तव्यवस्तुनि ॥२२॥ स्वामिभक्तिपरस्यास्य कशिपोर्बलशालिनः । अभूदक्षि प्रगन्तव्यममात्यं प्रति सर्वदा ॥२३॥ सर्वगुप्तो महासन्यसमेतः सह पार्थिवः । दूतप्रचोदितः प्राप चक्रवर्तीव मानवान् ॥२४॥ काशिदेशं तु विस्तीर्ण प्रविष्टः सागरोपमः । सन्धानं कशिपुनॆच्छद्योद्धव्यमिति निश्चितः ॥२५॥
रतिवर्द्धनराजेन प्रेषितः कशिपु प्रति । दण्डपाणियुवा प्राप्तः प्रविष्टश्च निशागमे ॥२६॥ परम भक्त है वह ऐसा विरुद्ध भाषण कैसे कर सकता है ? तुमने जो कहा है वह तो किसी तरह सम्भव नहीं है ॥१२॥
तदनन्तर दूसरे दिन राजाने उक्त चिह्न जानकर अर्थात् कलहका अवसर जान क्षमारूप शखके द्वारा उस अनिष्टको टाल दिया ।।१३।। 'यह राजा मेरे प्रति क्रोध रखता है-अपशब्द कहता है' ऐसा कहकर पापी मन्त्रीने सब सामन्तोंको भीतर ही भीतर फोड़ लिया ॥१४॥ तदनन्तर किसी दिन उसने रात्रिके समय राजाके निवासगृहको बहुत भारी ईधनसे प्रज्वलित कर दिया परन्तु राजा सदा सावधान रहता था ॥१५॥। इसलिए वह बुद्धिमान, स्त्री और दोनों पुत्रोंको लेकर प्राकार-पुटसे सुगुप्त प्रदेशमें होता हुआ सुरङ्गसे धीरे-धीरेसे बाहर निकल गया ॥१६।। उस मार्गसे निकलकर वह काशीपुरीके राजा कशिपुके पास गया। राजा कशिपु न्यायशील, उग्रवंशका प्रधान एवं उसका सामन्त था ॥१७॥ तदनन्तर जब सर्वगत मन्त्री राज्यगही पर बैठा तब उसने दूत द्वारा सन्देश भेजा कि हे कशिपो ! मुझे नमस्कार करो। इसके उत्तरमें कशिपुने कहा ॥१८॥ वह स्वामीका घात करनेवाला दुष्ट दुःखपूर्ण दुर्गतिको प्राप्त होगा। ऐसे दुष्टका तो नाम भी नहीं लिया जाता फिर सेवा कैसे की जावे ॥१६॥ जिसने स्त्री और पुत्रों सहित अपने स्वामी रतिवर्धनको जला दिया उस स्वामी, स्त्री और बालघातीका तो स्मरण करना भी योग्य नहीं है ॥२०॥ इस पापीका सब लोगोंके देखते-देखते शिर काटकर आज ही रतिवर्धनका बदला चुकाऊँगा, यह निश्चय समझो ॥२१॥ इस तरह, जिस प्रकार विवेकी मनुष्य मिथ्यामतको दूर हटा देता है उसी प्रकार उस दूतको दूर हटाकर तथा उसकी बात काटकर वह करने योग्य कार्य में तत्पर हो गया ।।२२।। तदनन्तर स्वामि-भक्तिमें तत्पर इस बलशाली कशिपु की दृष्टि, सदा चढ़ाई करनेके योग्य मन्त्रीके प्रति लगी रहती थी ॥२३॥
तदनन्तर दूतसे प्रेरित, चक्रवर्तीके समान मानी, सर्वगुप्त मन्त्री बड़ी भारी सेना लेकर अनेक राजाओंके साथ आ पहुँचा ॥२४॥ यद्यपि समुद्रके समान विशाल सर्वगुप्त, लम्बे चौड़े काशी देशमें प्रविष्ट हो चुका था तथापि कशिपुने सन्धि करनेकी इच्छा नहीं की किन्तु युद्ध करना चाहिए इसी निश्चयपर वह दृढ़ रहा आया ॥२५।। उसी दिन रात्रिका प्रारम्भ होते ही
१. कृत स्वामिघातो येन सः स्वामिघातकृतः 'वाहितान्यादिषु' इति क्तान्तस्य परनिपातः । स्वामिघातकृतं हन्ता म०, ३०, ज०।
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