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सप्तोत्तरशतं पर्व नियम्याणि कृच्छ्रेण व्याकुलो राघवोऽवदत् । मत्तुल्यां श्रियमुज्झित्वा धन्यस्त्वं सद्भतोन्मुखा ॥३॥ एतेन जन्मना नो चेवं निर्वाणमपेष्यसि । ततो बोध्योऽस्मि देवेन त्वया साहटमागतः ॥१४॥ यद्यकमपि किञ्चिन्मे जानास्युपकृतं ततः । नेदं विस्मरणीयं ते भद्रवं कुरु सगरम् ॥१५॥ यथाज्ञापयसीत्युक्वा प्रणम्य च यथाविधि । उपसृत्योरुसंवेगः सेनानीः सर्वभूषणम् ॥१६॥ प्रणम्य सकलं त्यक्त्वा बाह्यान्तरपरिग्रहम् । सौम्यवक्त्रः सुविक्रान्तो निष्क्रान्तः कान्तचेष्टितः ॥1॥ एवमाद्या महाराजा वैराग्यं परमं गताः । महासंवेगसम्पन्ना नैन्थ्यं व्रतमाश्रिताः॥1॥ केचिच्छ्रावकत्तां प्राप्ताः सम्यग्दर्शनता परे । मुदित्वैवं सभा साभाद्रनत्रयविभूषणा ॥१॥ प्रयाति नगतो नाथे ततः सकलभूषणे । प्रणम्य भक्तितो याता यथायातं सुरासुराः ॥२०॥ पनोपमेक्षणः पनो नवा सकलभूषगम् । अनुक्रमेण साधूंन मुक्तिसावनतत्परान् ॥२॥ उपागमद्विनीतारमा सीतां विमलतेजसम् । धृताहुत्या समुद्भूतां स्फीतां वद्विशिखामिव ॥२२॥ शान्त्याऽऽांगणमध्यस्था स्फुरस्वकिरणोत्कराम् । सुभ्रयुगा ध्रवामन्यामिव तारांगणावृताम् ॥२६॥ सवृत्तात्यन्त निभृतां त्यक्तनग्गन्धभूषणाम् । तिकीर्तिरतिश्रीहीपरिवार तथापि ताम् ॥२४॥ मृदुचारसितश्लक्ष्णप्रलम्बाम्बरधारिणीम् । मन्दानिलचलरफेनपटां पुण्यनदीमिव ॥२५॥ "विकासिकाशसङ्घात विशदां शरदं यथा । कौमुद्वतीमिव ज्योत्स्ना कुमुदाकरहासिनीम् ॥२६॥
तदनन्तर व्यग्र हुए रामने बड़ी कठिनाईसे आँसू रोककर कहा कि मेरे समान लक्ष्मीको छोड़कर जो तुम उत्तम व्रत धारण करनेके लिए उन्मुख हुए हो अतः तुम धन्य हो ॥१३॥ इस - जन्मसे यदि तुम निर्वाणको प्राप्त न हो सको और देव होओ तो संकटमें पड़ा हुआ मैं तुम्हारे द्वारा सम्बोधने योग्य हूँ ॥१४।। हे भद्र ! यदि मेरे द्वारा किया हुआ एक भी उपकार तुम मानवे हो तो यह बात भूलना नहीं। ऐसी प्रतिज्ञा करो ॥१५।। 'जैसी आप आज्ञा कर रहे हैं वैसा ही होगा' इस प्रकार कहकर तथा विधिपूर्वक प्रणामकर उत्कट वैराग्यसे भरा सेनापति सर्वभूषण केवलोके पास गया और प्रणाम कर तथा बाह्याभ्यन्तर सर्व प्रकारका परिग्रह छोड़ सौम्यवक्त्र हो गया । अब वह आत्महितके विषयमें तीव्र पराक्रमी हो गया, गृह जंजालसे निकल चुका तथा सुन्दर चेष्टाका धारक हो गया ॥१६-१७॥ इस प्रकार परम वैराग्यको प्राप्त एवं महासंवेगसे सम्पन्न कितने ही महाराजाओंने निर्ग्रन्थ व्रत धारण किया-जिन-दीक्षा ली ॥१८॥ कितने ही लोग श्रावक हुए और कितने ही लोग सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए। इस प्रकार हर्षित हो रत्नत्रयरूपी आभूषणोंसे विभूषित वह सभा अत्यन्त सुशोभित हो रही थी ॥१॥
अथानन्तर जब सकलभूषण स्वामी उस पर्वतसे विहार कर गये तब भक्तिपूर्वक प्रणाम कर सुर और असुर यथास्थान चले गये ॥२०॥ कमललोचन राम सकलभूषण केवली तथा मुक्तिके सिद्ध करनेमें तत्पर साधुओंको यथाक्रमसे प्रणामकर विनीत भावसे उस सीताके पास गये जो कि निर्मल तेजको धारण कर रही थी तथा घीकी आहुतिसे उत्पन्न अग्निकी शिखाके समान देदीप्यमान थी ॥२१-२२।। वह शान्तिपूर्वक आर्यिकाओंके समूहके मध्यमें स्थित थी, उसकी स्वयंकी किरणोंका समूह देदीप्यमान हो रहा था, वह उत्तम शान्त भौंहोंसे युक्त थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो समूहसे आवृत दूसरी ही ध्रुवतारा हो ॥२३॥ जो सम्यक्चारित्रके धारण करनेमें अत्यन्त दृढ़ थी, जिसने माला, गन्ध तथा आभूषण छोड़ दिये थे, फिर भी जो धृति, कोर्ति, रति, श्री और लज्जारूप परिवारसे युक्त थी। जो कोमल सफेद चिकने एवं लम्बे वस्त्रको धारण कर रही थी, अतएव मन्द-मन्द वायुसे जिसके फेनका समूह मिल रहा था ऐसी पुण्यकी नदीके समान जान पड़ती थी अथवा खिले हुए काशके फूलोंके समूहसे विशद शरद् ऋतुके
१. नामतो म० । २. विमलतेजसाम् म० । ३. तारागणावृताम् म० । ४. विकाशिकाशसंकाशां म० ।
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