________________
पद्मपुराणे
भगवाधमा मध्या उत्तमाश्वासुधारिणः । भव्याः केन विमुच्यन्ते विधिना भववासतः ॥ २०६ ॥ उवाच भगवान् सम्यग्दर्शनज्ञानचेष्टितम् । मोक्षव समुद्दिष्टमिदं जैनेन्द्रशासने ॥ २१०॥ तत्वश्रद्धानमेतस्मिन् सम्यग्दर्शनमुच्यते । चेतनाचेतनं तत्वमनन्तगुणपर्ययम् ॥२११॥ निसर्गाधिगमद्वाराद्भक्त्या तत्वमुपाददत् । सम्यग्दृष्टिरिति प्रोक्तो जीवो जिनमते रतः ॥ २१२ ॥ शङ्का काङ्क्षा 'चिकित्सा च परशासन संस्तवः । प्रत्यक्षोदारदोषाद्या एते सम्यक्त्वदूषणाः ।। २१३ ॥ स्थैर्य जिनवरागारे रमणं भावना पराः । शङ्कादिरहितत्वं च सम्यग्दर्शनशोधनम् ॥ २१४॥ सर्वज्ञशासनोक्तेन विधिना ज्ञानपूर्वकम् । क्रियते यदसाध्येन सुचारित्रं तदुच्यते ॥ २१५|| गोपायितहृषीकत्वं वचोमानसयन्त्रणम् । विद्यते यत्र निष्पापं सुचारित्रं तदुच्यते ।।२१६ ।। अहिंसा यत्र भूतेषु श्रसेषु स्थावरेषु च । क्रियते न्याययोगेषु सुचारित्रं तदुच्यते ॥२१७॥ मनःश्रोत्र परिह्लादं स्निग्धं मधुरमर्थवत् । शिवं यत्र वचः सत्यं सुचारित्रं तदुच्यते ॥२१८॥ अदत्तग्रहणे यत्र निवृत्तिः क्रियते त्रिधा । दत्तं च गृह्यते न्याय्यं सुचारित्रं तदुच्यते ॥ २१६ ॥ सुराणामपि सम्पूज्यं दुर्धरं महतामपि । ब्रह्मचर्यं शुभं यत्र सुचारित्रं तदुच्यते ॥ २२० ॥ शिवमार्गमहाविघ्नमूच्छत्यजनपूर्वकः । परिग्रहपरित्यागः सुचारित्रं तदुच्यते ॥ २२१॥ परपीडाविनिर्मुक्तं दानं श्रद्धादिसङ्गतम् । दीयते यन्निवृत्तेभ्यः सुचारित्रं तदुच्यते ॥२२२॥
२६४
लगाओ ॥२०८॥| उन्होंने यह भी पूछा कि हे भगवन् ! जघन्य मध्यम तथा उत्तमके भेद से भव्य जीव तीन प्रकारके हैं सो ये संसार वाससे किसी विधिसे छूटते हैं ? ॥२०॥
तत्र सर्वभूषण भगवान् ने कहा कि जैनेन्द्र शासन - जैनधर्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इनकी एकता ही को मोक्षका मार्ग बताया है || २१०|| इनमेंसे तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। अनन्त गुण और अनन्त पर्यायोंको धारण करनेवाला तत्त्व चेतन, अचेतनके भेद से दो प्रकारका है ।। २११ || स्वभाव अथवा परोपदेशके द्वारा भक्तिपूर्वक जो तत्त्वको ग्रहण करता है वह जिनमतका श्रद्धालु सम्यग्दृष्टि जीव कहा गया है ॥ २१२ ॥ शङ्का कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा और प्रत्यक्ष ही उदार मनुष्यों में दोषादि लगाना- उनकी निन्दा करना ये सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार हैं ॥ २१३ || परिणामोंको स्थिरता रखना, जिनायतन आदि धर्म क्षेत्रों में रमण करना - स्वभावसे उनका अच्छा लगना, उत्तम भावनाएँ भाना तथा शङ्कादि दोषों से रहित होना ये सब सम्यग्दर्शनको शुद्ध रखने के उपाय हैं ॥ २१४ ॥ सर्वज्ञके शासन में कही हुई विधि अनुसार सम्यग्ज्ञान पूर्वक जितेन्द्रिय मनुष्यके द्वारा जो आचरण किया जाता है वह सम्यकूचारित्र कहलाता है || २१५|| जिसमें इन्द्रियोंका वशीकरण और वचन तथा मनका नियन्त्रण होता है वही निष्पाप - निर्दोष सम्यक्चारित्र कहलाता है || २१६ || जिसमें न्यायपूर्ण किरनेवाले सस्थावर जीवोंपर अहिंसा की जाती है उसे सम्यक्चारित्र कहते हैं ॥ २९७ ॥ जिसमें मन और कानोंको आनन्दित करनेवाले, स्नेहपूर्ण, मधुर, सार्थक और कल्याणकारी वचन कहे जाते हैं उसे सम्यक् चारित्र कहते हैं ||२१८ || जिसमें अदत्तवस्तुके ग्रहण में मन, वचन, कायसे निवृत्ति की जाती है तथा न्यायपूर्ण दी हुई वस्तु ग्रहण की जाती है उसे सम्यक् चारित्र कहते हैं ||२१|| जहाँ देवोंके भी पूज्य और महापुरुषोंके भी कठिनता से धारण करने योग्य शुभ ब्रह्मचर्य धारण किया जाता है वह सम्यक् चारित्र कहलाता है ||२२०|| जिसमें मोक्षमार्ग में महाविन्नकारी मूर्च्छा त्यागपूर्वक परिग्रहका त्याग किया जाता है उसे सम्यक्चारित्र कहते हैं ||२२१|| जिसमें मुनियोंके लिए परपीडासे रहित तथा श्रद्धा आदि गुणोंसे सहित दान दिया जाता है उसे
१. च कुत्सा च म० । २. परिपीडा - म० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org