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षडुत्तरशतं पर्व
द्विरदौ महिषौ गावौ प्लवगौ द्वीपिनौ वृकौ । रुरूच तौ समुत्पन्नावन्योन्यं च हतस्तथा ॥२८॥ जले स्थले च भूयोऽपि वैरानुसरणोद्यतौ । भ्राम्यतः पापकर्माणौ म्रियमाणौ तथाविधम् ॥२६॥ परमं दुःखितः सोऽपि धनदत्तोऽध्वखेदितः । अन्यदाऽस्तङ्गते भानौ श्रमणाश्रममागमत् ॥३०॥ तत्र साधूनभाषिष्ट तृषितोऽप्युदकं मम । प्रयच्छत सुखिन्नस्य यूयं हि सुकृतप्रियाः ॥३१॥ तकश्रमणोऽवोचन मधुरं परिसान्त्वयन् । रात्रावप्यमृतं युक्तं न पातुं किं पुनर्जलम् ॥३२॥ चक्षुर्व्यापारनिमुक्त काले पापैकदारुणे । अदृष्टसूक्ष्मजन्त्वाढ्ये माशीर्वस 'विभास्करे ॥३३॥ आतुरेणाऽपि भोक्तव्य विकाले भद्र न स्वया । मापत व्यसनोदारसलिले भवसागरे ॥३॥ उपशान्तस्ततः पुण्यकथाभिः सोऽल्पशक्तिकः । अणुवतधरो जातो दयालिङ्गितमानसः ॥३५॥ कालधर्म च सम्प्राप्य सौधर्म सत्सुरोऽभवत् । मौलिकुण्डलकेयूरहारमुद्राङ्गदोउज्वलः ॥३६॥ पूर्वपुण्योदयात्तत्र सुरस्त्रीसुखलालितः। महाप्सरःपरिवारो मोदते वज्रपाणिवत् ॥३७॥ ततश्च्युतः समुत्पन्नः पुरश्रेष्ठमहापुरे । धारिण्यां श्रेष्टिनो मेरो नात् पद्मरुचिः सुतः ॥३८॥ तत्रैव च पुरे नाम्ना छत्रच्छायो नरेश्वरः । महिषीगुणमन्जूषा श्रीदत्ता तस्य भामिनी ॥३६॥ आगच्छन्नन्यदा गोष्ठं गत्वा तुरगपृष्ठतः । अपश्यद् भुवि पर्यस्तं भैरवो जीर्णकं वृषम् ॥४०॥
दोनों फिर लड़े और परस्पर एक दूसरेको मार कर शूकर अवस्थाको प्राप्त हुए ॥२७॥ तदनन्तर बे दोनों हाथी, भैसा, बैल, बानर, चीता, भेड़िया और कृष्ण मृग हुए तथा सभी पर्यायोंमें एक दूसरेको मार कर मरे ॥२८॥ पाप कार्यमें तत्पर रहने वाले वे दोनों जलमें, स्थलमें जहाँ भी उत्पन्न होते थे वहीं बैरका अनुसरण करनेमें तत्पर रहते थे और उसी प्रकार परस्पर एक दूसरे को मार कर मरते थे ॥२॥
अथानन्तर मार्गके खेदसे थका अत्यन्त दुःखी धनदत्त, एक दिन सूर्यास्त होजाने पर मुनियों के आश्रममें पहुँचा ॥३०॥ वह प्यासा था इसलिए उसने मुनियोंसे कहा कि मैं बहुत दुःखी होरहा हूँ अतः मुझे पानी दीजिए आप लोग पुण्य करना अच्छा समझते हैं ।।३१।। उनमेंसे एक मुनिने सान्त्वना देते हुए मधुर शब्द कहे कि रात्रिमें अमृत पीना भी उचित नहीं है फिर पानीकी तो बात ही क्या है ? ॥३२॥ हे वत्स ! जब नेत्र अपना व्यापार छोड़ देते हैं, जो पापकी प्रवृत्ति होने से अत्यन्त दारुण है, जो नहीं दिखनेवाले सूक्ष्म जन्तुओंसे सहित है, तथा जब सूर्यका अभाव हो जाता है ऐसे समय भोजन मत कर ॥३३॥ हे भद्र ! तुझे दुःखी होने पर भी असमयमें नहीं खाना चाहिए । तू दुःखरूपी गम्भीर पानीसे भरे हुए संसार-सागरमें मत पड़ ॥३२॥ तदनन्तर मुनिराजकी पुण्य कथासे वह शान्त हो गया, उसका चित्त दयासे आलिङ्गित हो उठा और इनके फलस्वरूप वह अणुव्रतका धारी हो गया। यतश्च वह अल्पशक्तिका धारक था इसलिए महाव्रती नहीं बन सका ॥३५॥ तदनन्तर आयुका अन्त आनेपर मरणको प्राप्त हो वह सौधर्य स्वर्गमें मुकुट, कुंडल, बाजूबन्द, हार, मुद्रा और अनन्तसे सुशोभित उत्तम देव हुआ ।।३६॥ वहाँ वह पूर्वपुण्योदयके कारण देवाङ्गनाओंके सुखसे लालित था, अप्सराओंक बड़े भारी परिवारसे सहित था तथा इन्द्रके समान आनन्दसे समय व्यतीत करता था ॥३७॥
तदनन्तर वहाँ से च्युत होकर महापुर नामक श्रेष्ठ नगरमें जैनधर्मके श्रद्धालु मेरु नामक सेठकी धारिणी नामक स्त्रीसे पद्मरुचि नामक पुत्र हुआ ॥३८॥ उसी नगरमें एक छत्रच्छाय नामका राजा रहता था। उसकी श्रीदत्ता नामकी स्त्री थी जो कि रानीके गुणोंकी मानो पिटारी ही थी ॥३६॥ किसी एक दिन पद्मरुचि घोड़े पर चढ़ा अपने गोकुलकी ओर आ रहा था, सो मार्गमें
१. विभावरे म० । २. तुद्यङ्गदो-ख०, ज०, क० । ३. मेरुपुत्रः = पद्मरुचिः ।
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