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षडुत्तरशतं पर्व
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उद्यानेऽवस्थितस्यास्य तत्र ज्ञास्वा जनोऽखिलः । वन्दनामगमत् कर्तुं सम्मदालापतत्परः ॥२॥ स्तुवतोऽस्य परं भक्त्या नादं धनकुलोपमम् । कर्णमादाय संश्रुस्य श्रीचन्द्रोऽपृच्छदन्तिकान् ॥३॥ कस्यैष श्रयते नादो महासागरसम्मितः । अजानद्भिः समादिष्टस्तैरमात्यः कृतोऽन्तिकः ॥४॥ ज्ञायतां कस्य नादोऽयमिति राज्ञा स भाषितः । गत्वा ज्ञास्वा परावृत्य मुनि प्राप्तमवेदयत् ॥८५॥ ततो विकचराजीवराजमाननिरीक्षणः । सस्त्रीकः सम्मदोद्भुतपुलकः प्रस्थितो नृपः ॥८६॥ प्रसन्नमुखतारेशं निरीक्ष्य मुनिपुङ्गवम् । सम्भ्रमी शिरसा नत्वा न्यसीदद्विनयाद्भुवि ॥८॥ भव्याम्भोजप्रधानस्य मुनिभास्करदर्शने । तस्यासीदात्मसंवेद्यः कोऽपि प्रेममहाभरः॥८॥ ततः परमगम्भीरः सर्वश्रुतिविशारदः । अदाजनमहौघाय मुनिस्तत्वोपदेशनम् ॥८६॥ अनगारं सहागारं धर्म 'द्विविधमब्रवीत् । अनेकभेदसंयुक्तं संसारोत्तारणावहम् ॥१०॥ करणं चरणं द्रव्यं प्रथमं च सभेदकम् । अनुयोगमुखं योगी जगाद वदतां वरः ॥११॥ आक्षेपणी पराक्षेपकारिणीमकरोत् कथाम् । ततो निक्षेपणी तत्वमतनिक्षेपकोविदाम् ॥१२॥ संवेजनी च संसारभयप्रचयबोधनीम् । निवेदनी तथा पुण्यां भोगवैराग्यकारिणीम् ॥१३॥ सन्धावतोऽस्य संसारे कर्मयोगेन देहिनः । कृच्छ्रेण महता प्राप्तिर्मुक्तिमार्गस्य जायते ॥६॥
समाधिगुप्त नामक भुनिराज उस नगर में आये ||८१॥ 'मुनिराज आकर उद्यानमें ठहरे हैं ।' यह जानकर मुनिकी वन्दना करनेके लिए नगरके सब लोग हर्षपूर्वक बात चीत करते हुए उद्यानमें गये ॥५२॥ भक्तिपूर्वक स्तुति करनेवाले जनसमूहका मेघमण्डलके समान जो भारी शब्द हो रहा था उसे कान लगाकर श्रीचन्द्रने सुना और निकटवर्ती लोगोंसे पूछा कि यह महासागरके समान
शब्द सनाई दे रहा है? जिन लोगोंसे राजाने पछा था वे उस शब्दका कारण नहीं जानते थे इसलिए उन्होंने मन्त्रीको राजाके निकट कर दिया ॥८३-८४॥ तब राजाने मत्रीसे कहा कि मालूम करो यह किसका शब्द है ? इसके उत्तर में मंत्रीने जाकर तथा सब समाचार जानकर वापिस आ निवेदन किया कि उद्यानमें मुनिराज आये हैं ॥८॥
तदनन्तर जिसके नेत्र खिले हुए कमलके समान सुशोभित हो रहे थे तथा जिसके हर्षके रोमाश्च उठ आये थे ऐसा राजा श्रीचन्द्र अपनी स्त्रीके साथ मुनिवन्दनाके लिए चला ॥८६॥ वहाँ प्रसन्न मुखचन्द्रके धारक मुनिराजके दर्शन कर राजाने शीघ्रतासे शिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया और उसके बाद वह विनयपूर्वक पृथिवी पर बैठ गया ।।८७|| भव्यरूपी कमलोंमें प्रधान राजा श्रीचन्द्रको मनिरूपी सर्य के दर्शन होनेपर अपने आप अनुभवमें आने योग्य कोई अद्भत महाप्रेम उत्पन्न हुआ ॥८॥ तत्पश्चात् परमगम्भीर और सर्वशास्त्रोंके विशारद मुनिराजने उस अपार जनसमूहके लिए तत्त्वोंका उपदेश दिया ।।८। उन्होंने कहा कि अवान्तर अनेक भेदोंसे सहित तथा संसार सागरसे तारने वाला धर्म, अनगार और सागारके भेदसे दो प्रकारका है।।६०ll वक्ताओं में श्रेष्ठ मुनिराजने अनुयोग द्वारसे वर्णन करते हुए कहा कि अनुयोगके १ प्रथमानुयोग २ करणानुयोग ३ चरणानुयोग और ४ द्रव्यानुयोगके भेदसे चार भेद हैं ॥६१॥ तदनन्तर उन्होंने अन्य मत-मतान्तरोंको आलोचना करनेवाली आक्षेपणी कथा की। फिर स्वकीय तत्त्वका निरूपण करने में निपुण निक्षेपणी कथा की। तदनन्तर संसारसे भय उत्पन्न करनेवाली संवेजनी कथा की और उसके बाद भोगोंसे वैराग्य उत्पन्न करनेवाली पुण्यवर्धक निवेदनी कथा की ॥६२-६३॥ उन्होंने कहा कि कर्मयोगसे संसार में दौड़ लगानेवाले इस प्राणीको मोक्षमार्गकी प्राप्ति बड़े कष्टसे
१. सम्मदं तोषतत्परः म०। २. तैरमा कृत्यतोऽन्तिकः व०, रमात्यकृतोऽन्तिकः ख०, ज.। ३. विविध-म० । ४. मुख्यं म० ।
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