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पद्मपुराणे
सन्ध्याबुबुरफेनोर्मि विद्युदिन्द्रधनुःसमः । भारत्वेन लोकोऽयं न किठिचदिह सारकम् ॥१५॥ नरके दुःखमेकान्तादेति तिर्यक्षु वाऽसुमान् । मनुष्यत्रिदशानां च सुखेनैवैष तृप्यति ॥३६॥ माहेन्द्रभोगसम्पद्भिर्यो न तृप्तिमुपागतः । स कथं क्षुद्रकैस्तृति ब्रजेन्मनुजभोगकैः ॥१७॥ कथञ्चिद् दुर्लभं लब्ध्वा निधानमधनो यथा। नरत्वं मुह्यति व्यर्थ विषयास्वादलोभतः ॥१८॥ काग्नेः शुष्कन्धनैस्तृप्तिः काम्बुधेरापगाजलैः । विषयास्वादसौख्यैः का तृप्तिरस्य शरीरिणः ॥१६॥ मजशिव जले खिसो विषयामिषमोहितः । दक्षोऽपि मन्दसामेति तमोऽन्धीकृतमानसः ॥१०॥ दिवा तपति तिग्मांशुमदनस्तु दिवानिशम् । समस्ति वारणं भानोमदनस्य न विद्यते ॥१०॥ जन्ममृत्युजरादुःखं संसारे स्मृतिभीतिदम् । अरहघटीयन्त्रसन्ततं कर्मसम्भवम् ॥१०२॥ अजङ्गमं यथाऽन्येन यन्त्रं कृतपरिभ्रमम् । शरीरमधवं पूति तथा स्नेहोऽत्र मोहतः ॥१०३॥ जलबुबुदनिःसारं ज्ञात्वा मनुजसम्भवम् । निर्विण्णाः कुलजा मार्ग प्रपद्यन्ते जिनोदितम् ॥१०॥ उत्साहकवचच्छन्ना निश्चयाश्वस्थसादिनः । ध्यानखड्गधरा धीराःप्रस्थिताः सुगति प्रति ॥१०५॥ अन्यच्छरीरमन्योऽहमिति सञ्चिन्त्य निश्चिताः। तथा शरीरके स्नेहं धर्म कुरुत मानवाः ॥१०६॥ सुखदुःखादयस्तुल्याः स्वजनेतरयोः समाः । रागद्वेषविनिर्मुक्ताः श्रमणाः पुरुषोत्तमाः ॥१०॥ वैरियं परमोदारा धवलध्यानतेजसा । कृत्स्ना कर्माटवी दग्धा दुःखश्वापदसकुला ॥१०॥
होती है ॥६४|| यह संसार विनाशी होनेके कारण संन्ध्या, बबूले, फेन, तरङ्ग, बिजली और इन्द्रधनुषके समान है । इसमें कुछ भी सार नहीं है ॥६५॥ यह प्राणी नरक अथवा तिर्यश्चगतिमें एकान्त रूपसे दुःख ही प्राप्त करता है और मनुष्य तथा देवोंके सुखमें यह तृप्त नहीं होता है ॥६६॥ जो इन्द्र सम्बन्धी भोग-सम्पदाओंसे तृप्त नहीं हुआ वह मनुष्योंके क्षुद्र भोगोंसे कैसे तृप्त हो सकता है ? ॥६७|| जिस प्रकार निधन मनुष्य किसी तरह दुर्लभ खजाना पाकर यदि प्रमाद करता है तो उसका वह खजाना व्यर्थ चला जाता है। इसी प्रकार यह प्राणी किसी तरह दुर्लभ मनुष्य पर्याय पाकर विषय स्वादके लोभमें पड़ यदि प्रमाद करता है तो उसकी मनुष्यपर्याय व्यर्थ चली जाती है ।।१८।। सूखे ईन्धनसे अग्निकी तृप्ति क्या है ? नदियोंके जलसे समुद्रको तृप्ति क्या है ? और विषयोंके आस्वाद-सम्बन्धी सुखसे संसारी प्राणीको तृप्ति क्या है ? ॥६जलमें डूबते हुए खिन्न मनुष्यके समान विषय रूपी आमिषसे मोहित हुआ चतुर मनुष्य भी मोहान्धीकृत चित्त होकर मन्दताको प्राप्त हो जाता है ॥१००॥ सूर्य तो दिनमें ही तपता है पर काम रात दिन तपता रहता है । सूर्यका आवरण तो है पर कामका आवरण नहीं है ।।१०१॥ संसारमें अरहटकी घटीके समान निरन्तर कर्मों से उत्पन्न होनेवाला जो जन्म, जरा
और मृत्यु सम्बन्धी दुःख है वह स्मरण आते ही भय देने वाला है ।।१०२।। जिस प्रकार अजंगम यन्त्र जंगम प्राणीके द्वारा घुमाया जाता है उसी प्रकार यह अनित्य तथा बीभत्स शरीर भी चेतन द्वारा घुमाया जाता है। इस शरीरमें जो स्नेह है वह मोहके कारण ही है ॥१०३।। यह मनुष्य जन्म पानीके बबूलेके समान निःसार है ऐसा जानकर कुलीन मनुष्य विरक्त हो जिनप्रतिपादित मार्गको प्राप्त होते हैं ॥१०४।। जो उत्साह रूपी कवचसे आच्छादित हैं, निश्चय रूपी घोड़ेपर सवार हैं और ध्यानरूपी खङ्गको धारण करनेवाले हैं ऐसे धीर वीर मनुष्य सुगतिके प्रति प्रस्थान करते हैं ॥१०॥ हे मानवो! शरीर जुदा है और मैं जुदा हूँ ऐसा विचार कर निश्चय करो तथा शरीरमें स्नेह छोड़कर धर्म करो ॥१०६|| जिन्हें सुख-दुःखादि समान हैं, जो स्वजन और परजनों में समान हैं तथा राग-द्वेष आदिसे रहित हैं ऐसे मुनि ही पुरुषोत्तम हैं ॥१०७। उन्हीं
१. 'अजङ्गमं जङ्गमनेययन्त्रं यथा तथा जीवधृतं शरीरम् । बीभत्सु पूति अपि तापकं च स्नेहो वृथात्रेति हितं त्वमाख्यः' ।। बृहत्स्वयंभूस्तोत्रे समन्तभद्रस्य ।
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