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षडत्तरशतं पर्व
३०३ तन्निबढेक्षणी यावदसौ तच्चित्रमीक्षते । वृषध्वजस्य पुरुषैस्तावत् संवादितं श्रुतम् ॥५३॥ ततो महर्द्धिसम्पन्नः समारुह्य द्विपोत्तमम् । इश्सङ्गमनाकांक्षी राजपुत्रः समागमत् ॥५४॥ अवतीर्य च नागेन्द्रादविशजिनमन्दिरम् । पश्यन्तं च तदासक्तं धारणेयं निरक्षत ॥५५॥ नेत्राऽऽत्यहस्तसञ्चारसूचितोत्तुङ्गविस्मयम् । अनंसीत् पादयोरेनं परिज्ञाय वृषध्वजः ॥५६॥ गोदुःखमरणं तस्मै धारिणीसूनुरबवीत् । राजपुत्रोऽगदीत सोऽहमिति विस्तारिलोचनः॥५७॥ सम्भ्रमेण च सम्पूज्य गुरुं शिष्यवरो यथा । तुष्टः पद्मरुचिं राजतनयः समुदाहरन् ॥५॥ मृत्युव्यसनसम्बद्धे काले तस्मिन् भवान् मम । प्रिय बन्धुरिव प्राप्तः समाधेः प्रापकोऽभवत् ॥५६॥ समाध्यमृतपाथेयं त्वया दत्तं दयालुना । स पश्य तृप्तिसम्पन्नः सम्प्राप्तोऽहमिमं भवम् ॥६॥ नैव तत् कुरुते माता न पिता न सहोदरः । न बान्धवा न गीर्वाणाः प्रियं यन्मे त्वया कृतम् ॥६॥ नेक्षे पञ्चनमस्कारश्रतिदानविनिष्क्रयम् । तथापि मे परा भक्तिः त्वयि कारयतीरितम् ॥६२॥ आज्ञा प्रयच्छ मे नाथ ब्रूहि किं करवाणि ते । आज्ञादानेन मां भक्तं भजस्व पुरुषोत्तम ॥६३॥ गृहाण सकलं राज्यमहं ते दासरूपकः । नियुज्यतामयं देहः कर्मण्यभिसमी हिते ॥६॥ एवमादिसुसम्भाष तयोः प्रेमाभवत् परम् । सम्यक्त्वं चैव राज्यं च सम्प्रयोगश्च सन्ततः ॥६५॥ २अस्थिमजानुरक्तौ तौ सागारव्रतसङ्गती। जिनबिम्बानि चैत्यानि भुव्यतिष्टिपतां स्थिरौ॥६६॥
हर्षित चित्त होता हुआ उस चित्रको देखने लगा। तदनन्तर आश्चर्यचकित हो उसी चित्रपर नेत्र गड़ा कर ज्यों ही वह उसे देखता है कि वृषभध्वज राजकुमारके सेवकोंने उसे उसका समा
सना दिया ॥५२-५३॥ तदनन्तर विशाल सम्पदासे सहित राजपुत्र, इष्टके समागमकी इच्छा करता हुआ उत्तम हाथी पर सवार हो वहाँ आया ॥५४॥ हाथीसे उतर कर उसने जिनमन्दिर में प्रवेश किया और वहाँ बड़ी तल्लीनताके साथ उस चित्रपटको देखते हुए धारिणीसुतपद्मरुचिको देखा ॥५५॥ जिसके नेत्र, मुख तथा हाथोंके सञ्चारसे अत्यधिक आश्चर्य सूचित हो रहा था ऐसे उस पद्मरुचिको पहिचान कर वृषभध्वजने उसके चरणोंमें नमस्कार किया ॥१६॥ पद्मचिने उसके लिए बैलके दुःखपूर्ण मरणका समाचार कहा जिसे सुन कर उत्फुल्न लोचनोंको धारण करनेवाला राजपुत्र बोला कि वह बैल मैं ही हूँ ॥५७॥ जिस प्रकार उत्तम शिष्य गुरुकी पजा कर सन्तष्ट होता है उसी प्रकार वृषभध्वज राजकुमार भी शीघ्रतासे पद्मरुचिकी पूजा कर सन्तुष्ट हुआ। पूजाके बाद राजपुत्रने पद्मरुचिसे कहा कि मृत्युके संकटसे परिपूर्ण उस कालमें आप मेरे प्रियबन्धुके समान समाधि प्राप्त करानेके लिए आये थे ॥१८-५६॥ उस समय तुमने दयालु होकर जो समाधिरूपी अमृतका सम्बल मेरे लिए दिया था देखो, उसीसे तृप्त होकर मैं इस भवको प्राप्त हुआ हूँ ॥६०॥ तुमने जो मेरा भला किया है वह न माता करती है, न पिता करता है, न सगा भाई करता है, न परिवारके अन्य लोग करते हैं और न देव ही करते हैं ॥६१॥ तुमने जो मुझे पञ्चनमस्कार मन्त्र श्रवणका दान दिया था उसका मूल्य यद्यपि मैं नहीं देखता तथापि आपमें जो मेरी परम भक्ति है वही यह चेष्टा करा रही है ॥६२॥ हे नाथ ! मुझे आज्ञा दो मैं आपका क्या करूँ ? हे पुरुषोत्तम ! आज्ञा देकर मुझ भक्तको अनुगृहीत करो ॥६३।। तुम यह समस्त राज्य ले लो, मैं तुम्हारा दास रहूँगा। अभिलषित कार्य में इस शरीरको नियुक्त कीजिए ॥६४॥ इत्यादि उत्तम शब्दोंके साथ-साथ उन दोनों में परम प्रेम होगया, दोनोंको ही सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई, वह राज्य दोनोंका सम्मिलित राज्य हुआ और दोनोंका संयोग चिर संयोग होगया ॥६५॥ जिनका अनुराग ऊपर ही ऊपर न रहकर हड्डी तथा मज्जा तक पहुँच गया था ऐसे वे दोनों श्रावकके व्रतसे सहित हुए। स्थिर चित्तके धारण करनेवाले उन दोनोंने पृथिवी
१. धारिण्याः पुत्रं पद्मचिम् । २. अस्थिमजनुरक्तौ म । ३. सागरबत भ० ।
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