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पद्मपुराणे
पिनाकृतं परिज्ञाय प्रीतेन कुलकांक्षिणा । दत्ता प्रौढकुमारी सा धनदत्ताय सूरिणा ॥१४॥ श्रीकान्त इति विख्यातो वणिक्पुत्रोऽपरो धनी। स तां सन्ततमाकांक्षद्र पस्तनितमानसः ॥१५॥ वित्तस्याल्पतयावज्ञा धनदत्ते विधाय च । श्रीकान्तायोयता' दातुं माता तां क्षुद्रमानसा ॥१६॥ विचेष्टितमिदं ज्ञात्वा वसुदत्तः प्रियाग्रजः। यज्ञवल्यपदेशेन श्रीकान्तं हन्तुमद्यतः ॥१७॥ मण्डलानं समुधम्य रात्री तमसि गहरे । निःशब्दपदविन्यासो नीलवस्त्रावगुण्ठितः ॥१८॥ श्रीकान्तं भवनोद्याने प्रमादिनमवस्थितम् । गत्वा प्राहरदेषोऽपि श्रीकान्तेनासिना हतः ॥१६॥ एवमन्योन्यघातेन मृत्युं तौ समुपागतौ । विन्ध्यपादमहारण्ये समुद्भूतौ कुरङ्गको ॥२०॥ दुर्जनैर्धनदत्ताय कुमारी वारिता ततः । क्रुध्यन्ति ते हि निर्व्याजादुपदेशे तु किं पुनः ॥२१॥ तेन दुमृत्युना भ्रातुः कुमार्यपगमेन च । धनदत्तो गृहाद्दुःखी देशानभ्रमदाकुलः ॥२२॥ धनदत्तापरिप्राप्तया साऽपि बाला सुदुःखिता । अनिष्टान्यवरा गेहे नियुक्तानप्रदाविधौ ॥२३॥ मिथ्याष्टिस्वभावेन द्वेष्टि दृष्ट्वा निरम्बरम् । साऽसूयते समाक्रोशत्यपि निर्भर्सयत्यपि ॥२४॥ जिनशासनमेकान्तान श्रद्धत्तेऽतिदुर्जना । मिथ्यादर्शनसक्तात्मा कर्मबन्धानुरूपतः ॥२५॥ ततः कालावसानेन सार्तध्यानपरायणा । जाता तत्र मृगी यत्र वसतस्तौ कुरजको ॥२६॥ पूर्वानुबन्धदोषेण तस्या एव कृते पुनः । मृगावन्योन्यमुवृत्तौ हत्वा शूकरतां गतौ ॥२७॥
जो कि भामण्डलका जीव था ॥१३॥ जब गुणवती युवावस्थाको प्राप्त हुई तब पिताका अभिप्राय जानकर कुलकी इच्छा करनेवाले बुद्धिमान गुणवान्ने प्रसन्न होकर उसे नयदत्तके पुत्र धनदत्तके लिए देना निश्चित कर दिया ॥१४॥ उसी नगरीमें एक श्रीकान्त नामका दूसरा वणिक पुत्र था जो अत्यन्त धनाढ्य था तथा गुणवतीके रूपसे अपहृतचित्त होनेके कारण निरन्तर उसकी इच्छा करता था। यह श्रीकान्त रावणका जीव था ॥१५॥ गुणवतीकी माता तुद्र हृदयवाली थी, इसलिए वह धनकी अल्पताके कारण धनदत्तके ऊपर अवज्ञाका भाव रख श्रीकान्तको गुणवती देनेके लिए उद्यत हो गई। तदनन्तर धनदत्तका छोटा भाई वसुदत्त यह चेष्टा जान यज्ञवलिके उपदेशसे श्रीकान्तको मारनेके लिए उद्यत हुआ।॥१६-१७॥ एक दिन वह रात्रिके सघन अन्धकारमें तलवार उठा चुपके-चुपके पद रखता हुआ नीलवस्त्रसे अवगुण्ठित हो श्रीकान्तके घर गया सो वह घरके उद्यानमें प्रमादसहित बैठा था जिससे वसुदत्तने जाकर उसपर प्रहार किया। बदलेमें श्रीकान्तने भी उसपर तलवारसे प्रहार किया ॥१८-१६॥ इस तरह परस्परके घातसे दोनों मरे और मरकर विन्ध्याचलकी महाअटवीमें मृग हुए ॥२०॥ दुर्जन मनुष्योंने धनदत्तके लिए कुमारीका लेना मना कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि दर्जन किसी कारणके बिना ही क्रोध करते हैं फिर उपदेश मिलनेपर तो कहना ही क्या है ? ॥२१॥ भाईके कुमरण और कुमारीके नहीं मिलनेसे धनदत्त बहुत दुःखी हुआ जिससे वह घरसे निकलकर आकुल होता हुआ अनेक देशोंमें भ्रमण करता रहा ॥२२॥ इधर जिसे दूसरा वर इष्ट नहीं था ऐसी गुणवती धनदत्तकी प्राप्ति नहीं होनेसे बहुत दुःखी हुई । वह अपने घरमें अन्न देनेके कार्यमें नियुक्त की गई अर्थात् घरमें सबके लिए भोजन परोसनेका काम उसे सौंपा गया ।।२३।। वह अपने मिथ्यादृष्टि स्वभावके कारण निर्ग्रन्थ मुनिको देखकर उनसे सदा द्वेष करती थी, उनके प्रति ईर्ष्या रखती थी, उन्हें गाली देती थी तथा उनका तिरस्कार भी करती थी ॥२४|| कर्मबन्धके अनुरूप जिसकी आत्मा सदा मिथ्यादर्शनमें आसक्त रहती थी ऐसी वह अतिदुष्टा जिनशासनका बिलकुल ही श्रद्धान नहीं करती थी ॥२५॥
तदनन्तर आयु समाप्त होने पर आतध्यानसे मर कर वह उसी अटवीमें मृगी हुई जिसमें कि वे श्रीकान्त और वसुदत्तके जीव मृग हुए थे ॥२६॥ पूर्व संस्कारके दोषसे उसी मृगीके लिए
१. श्रीकान्तायोद्यतो दान्तु भ्रान्तां तां क्षुद्रमानसः म० । २. नियुक्तान्तप्रदा-म० ।
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