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पञ्चोत्तरशतं पर्व
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सङ्कलेशवह्नितप्तो बबारम्भक्रियोद्यतः । न कञ्चिदर्थमाप्नोति हीयते वास्य सङ्गतम् ॥२५॥ असौ पुराकृतात्पापादप्राप्याथं मनोगतम् । प्रत्युताऽनर्थमाप्नोति महान्तमतिदुर्जरम् ॥२५२॥ इदं कृतमिदं कुर्वे करिष्येऽहंसुनिश्चितम् । माहे वत्स्वदः पापामृत्युं यान्तीति चिन्तकाः ॥२५३।। न हि प्रतीक्षते मृत्युरसुभाजां कृताकृतम् । समाक्रामत्यकाण्डेऽसौ मृगक केसरी यथा ॥२५॥ अहिते हितमित्याशा सुदुःखे सुखसम्मतिः । अनित्ये शाश्वताकृतं शरणाशा भयावहे ॥२५५॥ हिते सुखे परित्राणे ध्रवे च विपरीतधीः । अहो कुदृष्टिसक्तानामन्यथैव व्यवस्थितिः ॥२५६॥ भावारीप्रविष्टः सन् मनुष्यो वनवारणः । विषयामिषसक्तश्च मत्स्यो बन्धं समश्नुते ॥२५७।। कटम्बसमहाप विस्तरे मोहसागरे । मग्नोऽवसीदति स्फूर्जन्दुर्बलो गवली यथा ॥२५८॥ मोक्षो निगडबद्धस्य भवेदन्धाश्च कूपतः । निबद्धः स्नेहपाशैस्तु ततः कृच्छ्रेण मुच्यते ।।२५६।। बोधि मनुष्यलोकेऽपि जैनेन्द्रों सुष्टु दुर्लभाम् । प्राप्तुमर्हत्यभव्यस्तु' नैव मार्ग जिनोदितम् ॥२६॥ घनकर्मकलङ्काक्ता अभव्या नित्यमेव हि । संसारचक्रमारूढा भ्राम्यन्ति क्लेशवाहिताः ॥२६॥ ततः कृस्वाञ्जलिं मूनि जगाद रघुनन्दनः। किमस्मि भगवन् भव्यो मुच्ये कस्मादपायतः ॥२६२।। शक्नोमि पृथिवीमेतां त्यक्तुं सान्तःपुरामहम् । लक्ष्मीधरस्य सुकृतं न शक्नोम्येकमुज्झितुम् ॥२६३।। स्नेहोर्मिषुवन्द्रखण्डेषु तरन्तं लग्नतोज्झितम् । अवलम्बनदानेन मांत्रायस्व मुनीश्वर ॥२६॥
प्रकार यह प्राणी धर्ममें धैर्य धारण नहीं करता ॥२५०।। संक्लेशरूपी अग्निसे संतप्त हुआ यह प्राणी बहुत प्रकारके आरम्भ करनेमें तत्पर रहता है परन्तु किसी भी प्रयोजनको प्राप्त नहीं अपितु इसके पासका जो सुख है वह भी चला जाता है ॥२५१।। यह जीव पूर्वकृत पापके कारण मनोभिलषित पदार्थको प्राप्त नहीं होता किन्तु अत्यन्त दुर्जर बहुत भारी अनर्थको प्राप्त होता है ॥२५२।। 'मैं यह कर चुका, यह करता हूँ और यह आगे करूँगा।' इस प्रकार मनुष्य निश्चय कर लेता है पर कभी मरूँगा भी इस बातका कोई विचार नहीं करते ॥२५३।। मृत्यु इस बातकी प्रतीक्षा नहीं करती कि प्राणी, कौन काम कर चुके और कौन काम नहीं कर पाये। वह तो जिस प्रकार सिंह मृग पर आक्रमण करता है उसी प्रकार असमयमें भी आक्रमण कर बैठती है ॥२५४॥ अहो ! मिथ्या दृष्टि मनुष्य, अहितको हित, दुःखको सुख, अनित्यको नित्य, भयदायकको शरणदायक, हितको अहित, सुखको दुःख, रक्षकको अरक्षक और ध्रुवको अध्रुव समझते हैं । इस प्रकार कहना पड़ता है कि मिथ्यादृष्टि मनुष्योंकी व्यवस्था अन्य प्रकार ही है ॥२५५-२५६।। यह मनुष्य रूपी जङ्गली हाथी, भार्या रूपी बन्धनमें पड़कर बन्धको प्राप्त होता है अथवा यह मनुष्य रूपी मत्स्य विषय रूपी मांसमें आसक्त हो बन्धका अनुभव करता है ।।२५७।। कुटुम्बरूपी बहुत कीचड़से युक्त एवं लम्बे-चौड़े मोहरूपी महासागर में फंसा हुआ यह प्राणी दुबले-पतले भैसेके समान छटपटाता हुआ दुःखी हो रहा है ।।२५८।। बेड़ियोंसे बँधे हुए मनुष्यका अन्धे कुँएसे छुटकारा हो सकता है परन्तु स्नेह रूपी पाशसे बँधा प्राणी उससे बड़ी कठिनाईसे छूट पाता है ॥२५६॥ जिसका पाना मनुष्यलोकमें भी अत्यन्त दुर्लभ है ऐसी जिनेन्द्र प्रतिपादित बोधिको प्राप्त करनेके लिए अभव्य प्राणी योग्य नहीं है। इसी प्रकार जिनेन्द्र कथित रत्नत्रय मार्गको भी प्राप्त करनेके लिए अभव्य समर्थ नहीं हैं ॥२६०॥ तीव्र कर्म मल कलंकसे युक्त रहनेवाले अभव्य जीव, निरन्तर संसाररूपी चक्रपर आरूढ हो क्लेश उठाते हुए घूमते रहते हैं ॥२६१॥
तदनन्तर हाथ जोड़ मस्तकसे लगाकर रामने कहा कि हे भगवन् ! क्या मैं भव्य हूँ ? और किस उपायसे मुक्त होऊँगा? ॥२६२।। मैं अन्तःपुरसे सहित इस पृथिवीको छोड़नेके लिए समर्थ हूँ, परन्तु एक लक्ष्मणका उपकार छोड़नेके लिए समर्थ नहीं हूँ ॥२६३।। मैं विना किसी
१. -त्यभत्र्यास्तु म।
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