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पश्चोत्तरशतं पर्व
प्रियस्य प्राणिनो मृत्युर्वरिष्ठो विरहस्तु न । इति पूर्व प्रतिज्ञातं मया निश्चितचेतसा ॥८५॥ यदि तत् किं वृथा देवैः प्रातिहार्यमिदं शठः । वैदेह्या विहितं येन ययेदं समनुष्ठितम् ॥८६॥ लुप्तकेशीमपीमा मे यदि नार्पयत द्वतम् । अद्य देवानदेवान्वः करोमि च जगद्वियत् ॥७॥ कथं मे हियते पत्नी सुरैयायव्यवस्थितैः । पुरस्तिष्ठन्तु मे शस्त्रं गृहन्तु क्व नु ते गताः ॥८॥ एवमादिकृताचेष्टो लचमणेन विनीतिना । सान्त्व्यमानो बहुपायं प्राप्तः सुरसमागमम् ॥८॥
सर्वभूषणमैक्षिष्ट ततः श्रवणपुङ्गवम् । गाम्भीर्यधैर्यसम्पन्नं वरासनकृतस्थितिम् ॥१०॥ ज्वलज्ज्वलनतो दीप्तिं बिभ्राणं परमर्द्धिकम् । वहन्तं दहनं देहं कलुषस्योपसेदुषाम् ॥११॥ विबुधेष्वपि राजन्तं केवलज्ञानतेजसा । वीतजीमूतसङ्घातं भानुबिम्बमिवोदितम् ।।१२॥ चक्षुःकुमुद्वतीकान्तं चन्द्रं वा वीतलान्छनम् । परेण परिवेषेण प्रवृत्तं देहतेजसा ।।१३॥ तमालोक्य मुनिश्रेष्ठं सद्योगाद् भ्रष्टमानतम् । अवतीयं च नागेन्द्राउजगामास्य समीपताम् ॥१४॥ विधाय चाजलिं भक्त्या कृत्वा शान्तः प्रदक्षिणाम् । त्रिविधं गृहिणां नाथोऽनसीनाथमवेश्मनाम् ॥१५|| मुनीन्द्रदेह जच्छायास्तमितांशुकिरीटकाः । वैलच्यादिव चन्चद्धिः कुण्डलैः श्लिष्टगण्डकाः ॥१६॥
आवृत इन्द्रके समान जान पड़ते थे, उन्होंने लागल नामक शस्त्र हाथमें ले रक्खा था, तरुण कोकनद-रक्त कमलके समान उनकी कान्ति थी और वे क्षण-क्षणमें लोचन बन्द कर लेते थे तदनन्तर उच्चस्वरके धारक रामने ऐसे वचन कहे जो आत्मीयजनोंको भी भय देने वाले थे ॥८३-८४॥ उन्होंने कहा कि प्रिय प्राणीको मृत्यु हो जाना श्रेष्ठ है परन्तु विरह नहीं; इसी लिए मैंने पहले हदचित्त हो कर अग्नि-प्रवेशकी अनुमति दी थी ।।८।। जब यह बात थी तब फिर क्यों अविवेकी देवोंने सीताका यह अतिशय किया जिससे कि उसने यह दीक्षाका उपक्रम किया ॥८६॥ हे देवो! यद्यपि उसने केश उखाड़ लिये हैं तथापि तुम लोग यदि उस दशामें भी उसे मेरे लिए शीघ्र नहीं सौंप देते हो तो मैं आजसे तुम्हें अदेव कर दूंगा-देव नहीं रहने दूंगा और जगत्को आकाश बना दूंगा ॥७॥ न्यायकी व्यवस्था करनेवाले देवों द्वारा मेरी पत्नी कैसे हरी जा सकती है? वे मेरे सामने खड़े हों तथा शस्त्र ग्रहण करें, कहाँ गये वे सब ? ॥८८।। इस प्रकार जो अनेक चेष्टाएँ कर रहे थे तथा विविध नीतिको जाननेवाले लक्ष्मण जिन्हें अनेक उपायोंसे सान्त्वना दे रहे थे ऐसे राम, जहाँ देवोंका समागम था ऐसे उद्यानमें पहुँचे ॥६॥
तदनन्तर उन्होंने मुनियों में श्रेष्ठ उन सर्वभूषण केवलीको देखा कि जो गाम्भीर्य और धैर्यसे सम्पन्न थे, उत्तम सिंहासन पर विराजमान थे ॥६०॥ जलती हुई अग्निसे कहीं अधिक कान्तिको धारण कर रहे थे, परम ऋद्धियोंसे युक्त थे, शरणागत मनुष्यों के पापको जलानेवाले शरीरको धारण कर रहे थे ॥६१।। जो केवलज्ञान रूपी तेजके द्वारा देवोंमें भी सुशोभित हो रहे थे, मेघोंके आवरणसे रहित उदित हुए सूर्य मण्डलके समान जान पड़ते थे, ॥६२॥ जो चनुरूपी कुमुदिनियों के लिए प्रिय थे, अथवा कलङ्क रहित चन्द्रमाके समान थे, और मण्डलाकार परिणत अपने शरीर के उत्तम तेजसे आवृत थे ॥६३॥
तदनन्तर जो अभी-अभी ध्यानसे उन्मुक्त हुए थे तथा सर्व सुरासुर जिन्हें नमस्कार करते थे ऐसे उन मुनिश्रेष्ठको देखकर राम हाथीसे नीचे उतर कर उनके समीप गये ।।४।। तत्पश्चात् गृहस्थोंके स्वामी श्रीरामने शान्त हो भक्तिपूर्वक अञ्जलि जोड़ प्रदक्षिणा देकर उन मुनिराजको मन-वचन-कायसे नमस्कार किया ॥६५॥ अथानन्तर उन मुनिराजकी शरीर सम्बन्धी कान्तिके कारण जिनके मुकुट निष्प्रभ हो गये थे तथा लजाके कारण ही मानो चमकते हुए कुण्डलों द्वारा
१. एष श्लोकः म० पुस्तके नास्त्येव । २. सेदुषम् म०। ३. विवुद्धेष्वपि म०। ४. वृत्तं देहस्य तेजसा म० | ५. मुनीनां नाथम् ।
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