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पंचसप्ततितमं पर्व
खिन्नाभ्यां दीयते स्वादु जलं ताभ्यां सुशीतलम् । महातर्षाभिभूताभ्यामयं हि समरे विधिः ॥ १ ॥ अमृतोपममन्नं च क्षुधालपनमीयुषोः । गोशीर्षचन्दनं स्वेदसंगिनोदकारणम् ॥२॥ तालवृन्तादिवातश्च हिमवारिकणो रणे । क्रियते तत्परैः कार्यं तथान्यदपि पार्श्वगैः ॥३॥ तथा तयोस्तथाऽन्येषामपि स्वपरवर्गतः । इति कर्तव्यतासिद्धिः सकला प्रतिपद्यते ॥ ४ ॥ दशाहोऽतिगतस्तीव्रमेतयोर्युध्यमानयोः । बलिनोर्भङ्ग निर्मुक्तवित्तयोर तिवीरयोः ॥५॥ रावणेन समं युद्धं लक्ष्मणस्य बभूव यत् । लक्ष्मणेन समं युद्धं रावणस्य बभूव यत् ॥ ६ ॥ यक्ष किन्नर गन्धर्वाप्सरसो विस्मयं गताः । साधुशब्द विमिश्राणि पुष्पवर्षाणि चिचिपुः ॥७॥ चन्द्रवर्धननाम्नोऽथ विद्याधरजनप्रभोः । अष्टौ दुहितरो व्योम्नि विमानशिखर स्थिताः ॥८॥ अप्रमत्तैर्महाशंकैः कृतरक्षामहत्तरैः । पृष्टाः संगतिमेताभिरप्सरोभिः कुतूहलात् ॥ ६ ॥ का यूर्य देवताकारा भक्तिं लक्ष्मणसुन्दरे । दधाना इत्र वर्त्तध्वे सुकुमारशरीरिकाः ॥ १०॥ सलजा इव ता ऊचुः श्रूयतां यदि कौतुकम् । वैदेहीवरणे पूर्वमस्माभिः सहितः पिता ॥ ३१॥ आसीद्गतः तदास्थानं राज्ञां कौतुकचोदितः । दृष्ट्वा च लक्ष्मणं तत्र ददावस्मै धियैव नः ॥ १२॥ ततोऽधिगम्य मात्रात वृत्तमेतन्निवेदितम् । दर्शनादेव चाऽऽरभ्य मनस्येष व्यवस्थितः ॥ १३ ॥
अथानन्तर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! युद्धकी यह विधि है कि दोनों पक्ष के खेदखिन्न तथा महाप्यास से पीड़ित मनुष्योंके लिए मधुर तथा शीतल जल दिया जाता है । दुधासे दुखी मनुष्यों के लिए अमृततुल्य भोजन दिया जाता है। पसीनासे युक्त मनुष्यों के लिए आह्लादका कारण गोशीर्ष चन्दन दिया जाता है । पङ्के आदिसे हवाकी जाती है। बर्फके जलके छींटे दिये जाते हैं तथा इनके सिवाय जिसके लिए जो कार्य आवश्यक हो उसकी पूर्ति समीपमें रहनेवाले मनुष्य तत्परता के साथ करते हैं । युद्धकी यह विधि जिस प्रकार अपने पक्ष के लोगों के लिए है उसी प्रकार दूसरे पक्ष के लोगोंके लिए भी है। युद्धमें निज और परका भेद नहीं होता । ऐसा करने से ही कर्तव्यकी समग्र सिद्धि होती है ॥१-४॥
तदनन्तर जिनके चित्तमें हारका नाम भी नहीं था तथा जो अतिशय बलवान् थे ऐसे प्रचण्ड वीर लक्ष्मण और रावणको युद्ध करते हुए दश दिन बीत गये ||५|| लक्ष्मणका जो युद्ध रावण के साथ हुआ था वही युद्ध रावणका लक्ष्मणके साथ हुआ था अर्थात् उनका युद्ध उन्हीं के समान था ||६|| उनका युद्ध देख यक्ष किन्नर गन्धर्व तथा अप्सराएँ आदि आश्चर्यको प्राप्त हो धन्यवाद देते और उनपर पुष्पवृष्टि छोड़ते थे ||७|| तदनन्तर चन्द्रवर्धन नामक विद्याधर राजाकी आठ कन्याएँ आकाश में विमानकी शिखरपर बैठी थीं ||८|| महती आशंका से युक्त बड़ेबड़े प्रतीहारी सावधान रहकर जिनकी रक्षा कर रहे थे ऐसी उन कन्याओंसे समागमको प्राप्त हुई अप्सराओंने कुतूहलवश पूछा कि आपलोग देवताओंके समान आकारको धारण करनेवालीं तथा सुकुमार शरीरसे युक्त कौन हैं ? ऐसा जान पड़ता है मानो लक्ष्मण में आपलोग अधिक भक्ति धारण कर रही हैं ॥६- १०॥ तब वे कन्याएँ लज्जित होती हुई बोलीं कि यदि आपको कौतुक है तो सुनिये। पहले जब सीताका स्वयंवर हो रहा था तब हमारे पिता हमलोगोंके साथ कौतुकसे प्रेरित हो सभामण्डपमें गये थे वहाँ लक्ष्मणको देखकर उन्होंने हमलोगों को उन्हें देनेका संकल्प किया था ॥११- १२ वहाँसे आकर यह वृत्तान्त पिताने माताके लिए कहा और
१. हृदि म० । २. कृतरक्षमहत्तरैः म० ।
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