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द्वयुत्तरशतं पर्व
एवमुक्ता सती देवी जगाद विताम्रका । न कस्यचिदहं पुत्रौ कुपिता कमलेक्षणी ॥२॥ भवत्पितुर्मया ध्यातमद्य तेनाऽस्मि दुःखिता । रोदिमि प्रबलायातनयनोदकसन्ततिः ॥६३॥ उक्तवत्यामिदं तस्यां तदा श्रेणिक वीरयोः । सिद्धार्थो न पिताऽस्माकमिति बुद्धिः समुद्गता ॥६॥ ततस्तावूचतुर्मातः कोऽस्माकं जनकः क्व वा । इति पृष्टाऽगदत्सीता स्ववृत्तान्तमशेषतः॥६५॥ स्वस्य सम्भवमाचख्यौ रामसम्भवमेव च । अरण्यागमनं चैव हृतिमागमनं तथा ॥६६॥ यथा देवर्षिणा ख्यातं तच्च सर्व सविस्तरम् । वर्ततेऽद्यापि कः कालो वृत्तान्तस्य निगृहने ॥६७॥ एतदुक्त्वा जगौ पुत्रौ भवतोर्गर्भजातयोः । किंवदन्तीभयेनाहं युष्मपिनोज्झिता वने ॥६॥ तत्र सिहरवाख्यायामटव्यां कृतरोदना । वारणार्थ गतेनाहं वज्रजङ्घन वीक्षिता ॥६६॥ अनेन प्राप्तनागेन विनिवर्तनकारिणा । विशुद्धशीलरत्नेन श्रावकेण महात्मना ॥७॥ अहं स्वसेति सम्भाष्य करुणासक्तचेतसा । आनीतेदं निजं स्थानं पूजया चानुपालिता ॥७१॥ तस्यास्य जनकस्येव भवने विभवान्विते । भवन्तौ सम्प्रसूताऽहं पद्मनाभशरीरजौ ॥७२॥ तेनेयं पृथिवी वत्सी हिमवत्सागरावधिः । लचमणानुजयुक्तेन विहिता परिचारिका ॥७३॥ महाऽऽहवेऽधुना जाते श्रोष्यामि किमशोभनम् । नाथस्य भवतोः किंवा किं वा देवरगोचरम् ॥७॥ अनेन ध्यानभारेण परिपीडितमानसा । अहं रोदिमि सत्पुत्रौ कुतोऽन्य दिह कारणम् ॥७५॥ तच्छु त्वा परमं प्राप्तौ सम्मदं स्मितकारिणौ । विकासिवदनाम्भोजावूचतुर्लवणाङ्कुशौ ॥७॥
का कारण बतलानेकी प्रसन्नता करो ॥६१॥ इस प्रकार कहने पर सीता देवीने अश्रु धारण करते हुए कहा कि हे कमललोचन पुत्रो ! मैं किसी पर कुपित नहीं हूँ ॥६२।। आज मुझे तुम्हारे पिताका स्मरण हो आया है इसीलिए दुःखी हो गई हूँ और इसीलिए बलात् अभं डालती हुई रो रही हूँ ॥६३॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! सीताके इस प्रकार कहने पर उन दोनों वीरोंकी यह बुद्धि उत्पन्न हुई कि सिद्धार्थ हमारा पिता नहीं है ॥६४॥ तत्पश्चात् उन दोनोंने पूछा कि हे मातः ! हमारा पिता कौन है ? कहाँ है ? इस प्रकार पूछने पर सीताने अपना सब वृत्तान्त कह दिया ॥६शा अपना जन्म, रामका जन्म, वनमें जाना, वहाँ हरण होना तथा पुनः वापिस आना आदि जैसा वृत्तान्त नारदने कहा था वैसा सब विस्तारसे कह सुनाया क्योंकि वृत्तान्तके छिपाने का अब कौन-सा अवसर है ? ॥६६-६७॥
यह कह कर सीताने कहा कि जब तुम दोनों गर्भ में थे तब लोकापवाद के भयसे तुम्हारे पिताने मुझे वनमें छोड़ दिया था ॥६८।। मैं उस सिंहरवा नामकी अटवीमें रो रही थी कि हाथी पकड़नेके लिए गये हुए वनजंधने मुझे देखा ॥६|| जो हाथी प्राप्त कर अटवीसे लौट रहा था, जो विशुद्ध शक्ति रूपी रत्नका धारक था, महात्मा था एवं दयालुचित्त था, ऐसा यह श्रावक वज्रजंघ मुझे बहिन कह इस स्थान पर ले आया और बड़े सन्मानके साथ उसने हमारा पालन किया ।।७०-७१॥ जो तुम्हारे पिताके ही समान है ऐसे इस वज्रजंघके वैभवशाली घरमें मैंने तुम दोनोंको जन्म दिया है। तुम दोनों श्रीरामके शरीरसे उत्पन्न हो ॥७२॥ हे वत्सो ! लक्ष्मण नामक छोटे भाईसे सहित उन श्रीरामने हिमालयसे लेकर समुद्रपर्यन्तकी इस समस्त पृथिवीको अपनी दासी बनाया है ॥७३॥ अब आज उनके साथ तुम्हारा महायुद्ध होनेवाला है सो मैं क्या पतिकी अमाङ्गलिक वार्ता सुनूँगी ? या तुम्हारी ? अथवा देवर की ? ॥४॥ इसी ध्यानके कारण खिन्न चित्त होनेसे मैं रो रही हूँ । हे भले पुत्रो ! यहाँ और दूसरा कारण क्या हो सकता है ?॥७॥
__ यह सुनकर लवणाङ्कश परम हर्षको प्राप्त हो आश्चर्य करने लगे, और उनके मुखकमल खिल उठे । उन्होंने कहा कि अहो ! वह सुधन्वा, लोकश्रेष्ठ, श्रीमान् , विशाल एवं उज्ज्वल कीर्तिके
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