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द्वयु त्तरशतं पर्व महिषोष्ट्रमहोहाद्या कोशसंभारवाहिनः । प्रयान्ति प्रथमं गन्त्री पत्तयश्च मृदुस्वनाः ॥१२॥ ततः पदातिसङ्घाता युवसारङ्गविभ्रमाः । पश्चात्तरङ्गवृन्दानि कुर्वन्त्युत्तमवस्गितम् ॥१३॥ अथ काञ्चनकत्ताभिनितान्तकृतराजनाः । महाधण्टाकृतस्वानाः शङ्खचामरधारिणः ॥१४॥ बुबुदादर्शलम्बूषचारुवेषा महोद्धताः । अयस्ताम्रसुवर्णादिबद्धशुभ्रमहारदाः ॥१५॥ रत्न चामीकराद्यात्मकण्ठमालाविभूषिताः । चलत्पर्वतसङ्काशा नानावर्णकसङ्गिनः ॥६६॥ केचिन्निर्भरनिश्च्योतद्गण्डा मुकुलितेक्षणाः । हृष्टा दानोद्माः केचिद्वेगवण्डा धनोपमाः ॥१७॥ अधिष्ठिताः सुसना है नाशास्त्रविशारदैः । समुद्भूतमहाशब्दैः पुरुषैः पुरुदीप्तिभिः ॥१८॥ स्वान्यसैन्यमुद्भूतनिनादज्ञानकोविदाः । सर्वशिक्षासुसम्पन्ना दन्तिनश्चारुविभ्रमाः ॥१६॥ बिभ्राणाः कवचं चारु पश्चाद्विन्यस्तखेटकाः । सादिनस्तत्र राजन्ते परमं कुन्तपाणयः ॥१०॥ आश्ववृन्दखुराघातसमुद्भूतेन रेणुना। नभः पाण्डुरजीमूतचयरिव २समन्ततम् ॥११॥ शस्त्रान्धकारपिहिता नानाविभ्रमकारिणः । अहंयवः समुद्वृत्ताः प्रवर्तन्ते पदातयः ॥१०२॥ शयनासनताम्बूलगन्धमाल्यैर्मनोहरैः । न कश्चिदुःस्थितस्तत्र वस्वाहारविलेपनैः ॥१०३॥ नियुक्ता राजवाक्येन सन्तताः पथि मानवाः । दिने दिने महादक्षा बद्धकक्षाः सुचेतसः ॥१०॥ मधु शीधु घृतं वारि नानानं रसवत्परम् । परमादरसम्पन्नं प्रयच्छन्ति समन्ततः॥१०५॥
काटते हुए ऊँची-नीची भूमिको सब ओरसे दर्पणके समान करते जाते थे ॥११॥ सबसे पहले खजानेके भारको धारण करनेवाले भैंसे ऊँट तथा बड़े-बड़े बैल जा रहे थे। फिर कोमल शब्द करते हुए गाड़ियोंके सेवक चल रहे थे। तदनन्तर तरुण हरिणके समान उछलनेवाले पैदल सैनिकोंके समूह और उनके बाद उत्तम चेष्टाएँ करनेवाले घोड़ोंके समूह जा रहे थे ।।६२-६३।। उनके पश्चात् जो सुवर्णकी मालाओंसे अत्यधिक सुशोभित थे, जिनके गलेमें बंधे हुए बड़े-बड़े घण्टा शब्द कर रहे थे, जो शङ्खों और चामरोंको धारण कर रहे थे, काँचके छोटे-छोटे गोले तथा दर्पण तथा फन्नूसों आदिसे जिनका वेष बहुत सुन्दर जान पड़ता था, जो महाउद्दण्ड थे, जिनकी सफेद रङ्गको बड़ी-बड़ी खीसे लोहा तामा तथा सुवर्णादिसे जड़ी हुई थीं, जो रत्न तथा सुवर्णादिसे निर्मित कण्ठमालाओसे विभूषित थे, चलते-फिरते पर्वतोंके समान जान पड़ते थे, नाना रङ्गके चित्रामसे सहित थे, जिनमेंसे किन्हींके गण्डस्थलोंसे अत्यधिक मद कर रहा था, कोई नेत्र. बन्द कर रहे थे. कोई हर्षसे परिपूर्ण थे, किन्हींके मदकी उत्पत्ति होनेवाली थी, कोई वेगसे तीक्ष्ण थे और कोई मेघोंके समान थे, जो कवच आदिसे युक्त, नाना शास्त्रों में निपुण, महाशब्द करनेवाले और अत्यन्त तेजस्वी पुरुषोंसे अधिष्ठित थे, जो अपनी तथा परायी सेनामें उत्पन्न हुए शब्दके जानने में निपुण थे, सर्वप्रकारकी शिक्षासे सम्पन्न थे और सन्दर चेष्टाको धारण करनेवाले थे ऐसे हाथी जा रहे थे ।।६४-६६॥ उनके पश्चात् जो सुन्दर कवच धारण कर रहे थे, जिन्होंने पीछेकी
ओर ढाल टाँग रक्खी थी तथा भाले जिनके हाथों में थे ऐसे घुड़सवार सुशोभित हो रहे थे ॥१००॥ अश्वसमूहके खुराघातसे उठी धूलिसे आकाश ऐसा व्याप्त हो गया था मानो सफेद मेघोंके समूहसे ही व्याप्त हो गया हो ॥१०१।। उनके पश्चात् जो शस्त्रोंके अन्धकारसे आच्छादित थे, नाना प्रकारकी चेष्टाओंको करनेवाले थे, अहङ्कारी थे तथा उदात्त आचारसे युक्त थे ऐसे पदाति चल रहे थे ॥१०२।। उस विशाल सेनामें शयन, आसन, पान, गन्ध, माला तथा मनोहर वस्त्र, आहार और विलेपन आदिसे कोई दुःखी नहीं था अर्थात् सबके लिए उक्त पदार्थ सुलभ थे ॥१०३।। राजाकी आज्ञानुसार नियुक्त होकर जो मार्गमें सब जगह व्याप्त थे, अत्यन्त चतुर से कार्य करने के लिए जो सदा कमर कसे रखते थे और उत्तम हृदयसे युक्त थे ऐसे मनुष्य प्रति
१. मन्त्री म० । २. समन्ततः म० । ३. अहङ्कारयुक्ताः 'अहंशुभयोर्युस्' इति युस्प्रत्ययः ।
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