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पचोत्तरशतं पर्व
'मिथ्यादर्शननों पापां क्षुद्रिकां व्यभिचारिणीम् । ज्वलनो मां दहत्येष सतीं व्रतस्थितां तु मा ॥२८॥ अभिधायेति सा देव प्रविवेशानलं च तम् । जातं च स्फटिकस्वच्छं सलिलं सुखशीतलम् ||२६|| भिश्वेव सहसा क्षोणीं तरसा पयसोद्यता । परमं पूरिता वापी रङ्गभृङ्गकुलाऽभवत् ||३०||
नोल्मुकानि न काष्ठानि नाङ्गारा' न तृणादिकम् । आलोक्यते तदा तत्र वृत्तपावकसूचनम् ||३१|| पर्यन्तबद्धफेनौघवलया वेगशालिनः । भवर्तास्तत्र संवृद्धा गम्भीरा भीमदर्शनाः ||३२|| भवन्मृदङ्गनिस्वानात् क्वचिद् गुलुगुलायते । भुंभुंदभुम्भायतेऽन्यत्र क्वचित् पटपटायते ॥ ३३ ॥ क्वचिन्मुञ्चति हुङ्कारान्धूकारान्क्वचिदायतान् । क्वचिद्दिमिदि मिस्वानान् जुगुधुन्द्भूदिति क्वचित् ॥ ३४ ॥ क्वचित्कलकलारावांच्छ्रसङ्गसदिति क्वचित् । टुटु' घण्टासमुद्बुष्टमिति क्वचिदितीति च ॥३५॥ एवमादिपरिक्षुब्धसागराकार निःस्वना । क्षणाद्रोधः स्थितं वापी लग्ना प्लावयितुं जनम् ॥ ३६ ॥ जानुमात्रं क्षणादम्भः श्रोणिदध्नमभूत्क्षणात् । पुनर्निमेषमात्रेण स्तनद्वयसतां गतम् ॥३७॥ नैति पौरुवतां यावत्तावत्यस्ता महीचराः । किङ्कर्तव्यातुरा जाताः खेचरा वियदाश्रिताः ॥ ३८ ॥ कण्ठस्पर्शि ततो जाते वारिण्युरुजवान्विते । विह्वलाः सङ्गता मञ्चास्तेऽपि चञ्चत्कतां गताः ॥ ३६ ॥ केचित् प्लवितुमारब्धा जातेंभसि शिरोतिगे । वस्त्रडिंभकसम्बन्धसन्दिग्धो बैंकबाहुगाः ॥४०॥ त्रास्त्र देवि त्रायस्व मान्ये लधिम सरस्वति । महाकल्याणि धर्मांध्ये सर्वप्राणिहितैषिणि ॥ ४१ ॥
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सहित मुझे यह अग्नि नहीं जलावे ||२७|| यदि मैं मिथ्यादृष्टि, पापिनी, क्षुद्रा और व्यभिचारिणी होऊँगी तो यह अग्नि मुझे जला देगी और यदि सदाचार में स्थित सती होऊँगी तो नहीं जा सकेगी ||२८|| इतना कहकर उस देवीने उस अग्निमें प्रवेश किया परन्तु आश्चर्य की बात कि वह अनि स्फटिकके समान स्वच्छ, सुखदायी तथा शीतल जल हो गई ॥ २६ ॥ मानो सहसा पृथिवीको फोड़ कर वेगसे उठते हुए जलसे वह वापिका लबालब भर गई तथा चल तरङ्गों से व्याप्त हो गई ||३०|| वहाँ अग्नि थी इस बातकी सूचना देने वाले न लूगर, न काष्ठ, न अंगार और न तृणादिक कुछ भी दिखाई देते थे ||३१|| उस वापिका में ऐसी भयंकर भँवरें उठने लगीं जिनके कि चारों ओर फेनोंके समूह चक्कर लगा रहे थे जो अत्यधिक वेगसे सुशोभित थीं तथा अत्यन्त गंभीर थीं ||३२|| कहीं मृदङ्ग जैसा शब्द होनेसे 'गुलु गुल' शब्द होने लगा, कहीं 'भुं भुंभ' की ध्वनि उठने लगी और कहीं 'पट पट' की आवाज़ आने लगी ||३३|| उस वापीमें कहीं हुँकार, कहीं लम्बी-चौड़ीं घूंकार, कहीं दिमिदिमि, कहीं जुगुद् जुगुद्, कहीं कल कल ध्वनि, कहीं शसद भसद, और कहीं चांदीके घण्टा जैसी आवाज आ रही थी ॥३४-३५ ।। इस प्रकार जिसमें क्षोभको प्राप्त हुए समुद्र के समान शब्द उठ रहा था ऐसी वह वापी क्षणभर में तटपर स्थित मनुष्यों को डुबाने लगी ||३६|| वह जल क्षणभर में घुटनों के बराबर, फिर नितम्बके बराबर, फिर निमेष मात्र में स्तनोंके बराबर हो गया ||३७|| वह जल पुरुष प्रमाण नहीं हो पाया कि उसके पूर्व ही पृथिवी पर चलने वाले लोग भयभीत हो उठे तथा क्या करना चाहिए इस विचार से दुखी विद्याधर आकाशमें जा पहुँचे ॥ ३८ ॥ तदनन्तर तीव्र वेगसे युक्त जल जब कण्ठका स्पर्श करने लगा तब लोग व्याकुल हो कर मंचोंपर चढ़ गये किन्तु थोड़ी देर बाद वे मञ्च भी डूब गये ॥३६॥ तदनन्तर जब वह जल शिरको उल्लंघन कर गया तब कितने ही लोग तैरने लगे। उस समय उनकी एक भुजा वस्त्र तथा बच्चों को संभालने के लिए ऊपरकी ओर उठ रही था ||४०|| “हे देवि !
राघवादन्य पुंसि । तदिह दह शरीरं पावके मामकीनं २. स्फटिकं स्वच्छं म० । ३. नोत्सुकानि म० । ४. समुत्तस्था म० । ७. स्तवितु म० । ८ वाहनाः म० ।
१. त्रायमुपयुक्तः श्लोको महानाटकस्य - 'मनसि वचसि काये जागरे स्वप्नमार्गे, मम यदि प्रतिभावो मम सुकृतदुरितकार्ये देव साक्षी त्वंमेव' इति । नागाराः म० । ५. वृद्धं म० । ६. टुटु घंटा
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