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पञ्चोत्तरशतं पर्व . तां निरीक्ष्य ततो वापी तृगकाष्ठप्रपूरिताम् । समाकुलमना दध्याविति काकुत्स्थचन्द्रमाः ॥१॥ कुतः पुनरिमां कान्तां पश्येयं गुणतूणिकाम् । महालावण्यसम्पन्ना धुतिशीलपरावृताम् ॥२॥ विकासिमालतीमालासुकुमारशरीरिका । नूनं यास्यति विध्वंसं स्पृष्टमात्रेव वह्निना ॥३॥ अभविष्यदियं नो चेत्कुले जनकभूभृतः । परिवादमिमं नाप्स्यन्मरणं च हुताशने ॥४॥ उपलप्स्ये कुतः सौख्यं क्षणमप्यनया विना । वरं वासोऽनयारण्ये न विना दिवि राजते ॥५॥ महानिश्चिन्तचित्तेयमपि मर्नु व्यवस्थिता । प्रविशन्ती कृतास्थाग्नि रोद्धं लोकस्य लज्यते ॥६॥ उन्मुक्तसुमहाशब्दः सिद्धार्थः क्षुल्लकोऽप्ययम् । तूष्णीं स्थितः किमु व्याजं करोम्येतन्निवत्तते ॥७॥ अथ वा येन यादक्षं मरणं समुपार्जितम् । नियमं स तदाऽऽप्नोति कस्तद्वारयितुं तमः ॥८॥ तदाऽपहियमाणाया ऊर्ध्व क्षारमहोदधेः । मदनुव्रतचित्ताया नेच्छ्त्येषेति कोपिना ॥६॥ लकाधिपतिना कि नालुप्समस्याः शिरोऽसिना । येनाऽयमपरः प्रातः संशयोऽत्यन्तदुस्तरः।। 10॥ वरं हि मरणं श्लाध्यं न वियोगः सुःसहः । श्रतिस्मृतिहरोऽसौ हि परमः कोऽपि निन्दितः ॥11॥ यावजीवं हि विरहस्तापं यच्छति चेतसः । मृतेति छिद्यते स्वैरं कथाकांक्षा च तद्गता ।।१२।। इति चिन्तातुरे तस्मिन् वाप्यां प्रज्वाल्यतेऽनलः । समुत्पन्नोरुकारुण्या रुरुदुर्नरयोषितः ॥१३॥
अथानन्तर तृण और काष्ठसे भरी उस वापीको देख श्रीराम व्याकुलचित्त होते हुए इस प्रकार विचार करने लगे कि ॥१॥ गुणोंकी पुञ्ज, महा सौन्दर्यसे सम्पन्न एवं कान्ति और शीलसे युक्त इस कान्ताको अब पुनः कैसे देख सकूँगा ॥२॥ खिली हुई मालतीकी मालाके समान सुकुमार शरीरको धारण करनेवाली यह कान्ता निश्चित ही अग्गिके द्वारा स्पृष्ट होते ही नाशको प्राप्त हो जायगी ॥३।। यदि यह राजा जनकके कुलमें उत्पन्न नहीं हुई होती तो इस लोकापवादको तथा अग्निमें मरणको प्राप्त नहीं होती ॥४। इसके बिना मैं क्षण भरके लिए भी और किससे सुख प्राप्त कर सकूगा? इसके साथ वनमें निवास करना भी अच्छा है पर इसके बिना स्वगमें रहना भी शोभा नहीं देता ॥शा यह भी महा निश्चिन्तहदया है कि मरनेके लिए उद्यत हो गई। अब दृढ़ताके साथ अग्निमें प्रवेश करनेवाली है सो इसे कैसे रोका जाय ? लोगोंके समक्ष रोकने में लज्जा उत्पन्न हो रही है ॥६॥ उस समय बड़े जोरसे हल्ला करनेवाला यह सिद्धार्थ नामक तुल्लक भी चुप बैठा है, अतः इसे रोकने में क्या बहाना करूँ ? ॥७॥ अथवा जिसने जिस प्रकारके मरणका अर्जन किया है नियमसे वह उसी मरणको प्राप्त होता है उसे रोकनेके लिए कौन समर्थ है ? ॥८उस समय जब कि यह पतिव्रता लवण समुद्रके ऊपर हरकर ले जाई जा रही थी तब 'यह मुझे नहीं चाहती है' इस भावसे कुपित हो रावणने खगसे इसका शिर क्यों नहीं काट डाला ? जिससे कि यह इस अत्यन्त दुस्तर संशयको प्राप्त हुई है ॥६-१०।। मर जाना अच्छा है परन्तु दुःसह वियोग अच्छा नहीं है क्योंकि श्रुति तथा स्मृतिको हरण करनेवाला वियोग कोई अत्यन्त निन्दित पदार्थ है ॥११|| विरह तो जीवन-पर्यन्तके लिए चित्तका संपता प्रदान करता रहता है
और 'मर गई' यह सुन उस सम्बन्धी कथा और ईच्छा तत्काल छूट जाती है ॥१२|| इस प्रकार रामके चिन्तातुर होनेपर वापीमें अग्नि जलाई जाने लगी । दयावती स्त्रियाँ रो उठीं ॥१३॥
१. कोपिता म.
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