________________
पद्मपुराणे
१
भूगोचरनरेन्द्राणां यथायातः समन्ततः । नभश्वरनरेन्द्राणां तथैवात्यन्त सङ्कुलः ।। १६६।। लवणाङ्कुशयोः पक्षे स्थितो जनकनन्दनः । वीरः पवनवेगश्च मृगाको विद्युदुज्ज्वलः ।। १६७ ॥ महासैन्यसमायुक्ता सुरछन्दादयस्तथा । महाविद्याधरेशानां महारणविशारदाः ।। १६८ ।। लवकुशसम्भूतिं श्रुतवानथ तस्वतः अर्ध्वखेचरसामन्तसङ्घट्टश्लथतां नयन् ॥१६१ ॥ यथा कर्तव्य विज्ञानप्रयोगात्यन्तकोविदः । वैदेहीसुतयोः पक्षं वायुपुत्रोऽप्यशिश्रियत् ॥ १७० ॥ लाङ्गूलपाणिना तेन नियंता रामसैन्यतः । प्रभामण्डलवीरस्य चित्तमानन्दवकृतम् ॥ १७१ ॥ विमानशिखरारूढां ततः संदृश्य जानकीम् । औदासीन्यं ययुः सर्वे विहायश्वरपार्थिवाः ॥ १७२ ॥ कृताञ्जलिपुटाश्चैनां प्रणम्य पर राः । तस्थुर वृत्य बिभ्राणा विस्मयं परमोक्षतम् ॥ १७३ ॥ वित्रस्तहरिणीनेत्रा समुद्ष्टष्टत रहा । वैदेही बलयोः सङ्गमालुलोके सवेपथुः || १७४ | क्षोभयन्तावथोदारं तत्सैन्यं प्रचलद्ध्वजम् । पद्मलक्ष्मीधरौ तेन प्रवृत्तौ लवणाङ्कुशी ||१७५|| मृगनागारिसंलच्यध्वजयोरनयोः पुरः स्थितौ कुमारवीरौ तौ प्रतिपक्षमुखं श्रितौ ॥ १७६ ॥ | आपातमात्रकेणैव रामदेवस्य सद्ध्वजः । अनङ्गलवणश्चापं निचकर्त्त कृतायुधः || १७७ || विहस्य कार्मुकं यावत्सोऽम्यदादातुमुद्यतः । ताधल्लवणवीरेण तरला विरथीकृतः ॥१७८॥ अथान्यं रथमारुद्य काकुत्स्थोऽलघुविक्रमः । अनङ्गलवणं क्रोधात्ससर्प भ्रकुटीं वहन् ॥ १७६ ॥ धर्मार्क दुर्निरीक्ष्याक्षः समुत्क्षिप्तशरासनः । चमरासुरनाथस्य वज्रीवासौ गतोऽन्तिकम् ॥ १८० ॥
२६०
थे || १६५ || जिसप्रकार भूमिगोचरी राजाओं की ओरसे भयंकर शब्द आ रहा था उसी तरह विद्याधर राजाओं की ओरसे भी अत्यन्त महान् शब्द आ रहा था ॥ १६६ ॥ भामण्डल, वीर पवनवेग, बिजली के समान उज्ज्वल मृगाङ्क तथा महा विद्याधर राजाओंके प्रतिनिधि देवच्छन्द आदि जो कि बड़ी बड़ी सेनाओंसे युक्त तथा महायुद्ध में निपुण थे, लवणाङ्कुशके पक्ष में खड़े हुए
॥१६७-१६८॥
अथानन्तर जब कर्तव्य के ज्ञान और प्रयोगमें अत्यन्त निपुण हनूमान्ने लवणाङ्कुशकी वास्तविक उत्पत्ति सुनी तब वह विद्याधर राजाओंके संघट्टको शिथिल करता हुआ लवणाङ्कुशके पक्ष में आ गया ॥१६६-१७०॥ लाङ्गूल नामक शस्त्रको हाथमें धारण कर रामकी सेना से निकलते हुए हनूमान्ने भामण्डलका चित्त हर्षित कर दिया || १७१ ॥ तदनन्तर विमान के शिखर पर आरूढ जानकीको देखकर सब विद्याधर राजा उदासीनताको प्राप्त हो गये ॥ १७२ ॥ और हाथ जोड़ बड़े आदरसे उसे प्रणाम कर अत्यधिक आश्चर्यको धारण करते हुए उसे घेरकर खड़े हो गये ||१७३ ॥ सीताने जब दोनों सेनाओंकी मुठभेड़ देखी तब उसके नेत्र भयभीत हरिणीके समान चञ्चल हो गये, उसके शरीर में रोमान निकल आये और कँपकँपी छूटने लगी ॥ १७४ ॥
अथानन्तर चञ्चल ध्वजाओंसे युक्त उस विशाल सेनाको क्षोभित करते हुए लवणाङ्कुश, जिस ओर राम लक्ष्मण थे उसी ओर बढ़े || १७५ || इसतरह प्रतिपक्ष भावको प्राप्त हुए दोनों कुमार सिंह और गरुड़की ध्वजा धारण करनेवाले राम-लक्ष्मणके सामने आ डटे || १७६ || आते ही के साथ अनङ्गलवणने शस्त्र चलाकर रामदेवकी ध्वजा काट डाली और धनुष छेद दिया || १७७|| हँसकर राम जब तक दूसरा धनुष लेनेके लिए उद्यत हुए तब तक वीर लवणने वेगसे उन्हें रथ रहित कर दिया ॥ १७८ ॥ अथानन्तर प्रबल पराक्रमी राम, भौंह तानते हुए, दूसरे रथ पर सवार हो क्रोधवश अनङ्गलवणकी ओर चले ॥१७६॥ ग्रीष्म कालके सूर्य के समान दुर्निरीक्ष्य नेत्रोंसे युक्त एवं धनुष उठाये हुए राम अनङ्गके समीप उस प्रकार पहुँचे जिस प्रकार कि असुर कुमारोंके इन्द्र चमरेन्द्रके पास इन्द्र
Jain Education International
१. संकुलं ज० । २. निर्जिता म० । ३. प्रचलध्वजे म० ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org