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ध्युत्तरशतं पर्व
शत्रुध्नाथा महीपालाः श्रुत्वा वृत्तान्तमीदृशम् । तमुद्देशं गताः सर्वे प्राप्ताः प्रीतिमनुत्तमाम् ॥५.७॥ ततः समागमो जातः सेनयोरुभयोरपि । स्वामिनोः सङ्गमे जाते सुखविस्मयपूर्णयोः ॥५॥ सीताऽपि पुत्रमाहात्म्यं दृष्ट्रा सङ्गममेव च । पौण्डरीकं विमानेन प्रतीतहृदयाऽगमत् ॥५६॥ अवतीर्य ततो व्योम्नः सम्भ्रमी जनकात्मजः । स्वस्त्रीयौ निर्बणी पश्यन्नालिलिङ्ग सवाष्पहा ॥६॥ लागूलपाणिरप्येवं प्राप्तः प्रीतिपरायणः । आलिङ्गति स्म तौ साधु जातमित्युरचरन्मुहुः ॥६१॥ श्रीविराधितसुग्रीवावेवं प्राप्तौ सुसङ्गमम् । नृपा विभीषणाद्याश्च सुसम्भाषणतत्पराः ॥६२॥ अथ भूम्योमचाराणां सुराणामिव सङ्कुलः । जातः समागमोऽत्यन्तमहानन्दसमुद्भवः ॥६३॥ परिप्राप्य परं कान्तं पनः पुत्रसमागमम् । बभार परमां लक्ष्मी प्रतिनिर्भरमानसः ॥६॥ मेने सुपुत्रलम्भं च भुवनत्रयराज्यतः । सुदूरमधिकं रम्यं भावं कमपि संश्रितः ॥६५॥ विद्याधर्यः समानन्दं बनृतुर्गगनाङ्गणे । भूगोचरस्त्रियो भूमौ समुन्मत्तजगन्निभम् ॥६६॥ परं कृतार्थमात्मानं मेने नारायणस्तथा । जितं च भुवनं कृत्स्नं प्रमोदोत्फुल्ललोचनः ॥६७॥ सगरोऽहमिमौ तौ मे वीरभीमभगीरथौ। इति बुद्धया कृतौपम्यो दधार परमद्य तिम् ॥६॥ पनः प्रीतिं परां बिभ्रदज्रजङ्घमपूजयत् । भामण्डलसमस्त्वं मे सुचेता इति चावदत् ॥६६॥ ततः पुरैव रम्यासौ पुनः स्वर्गसमा कृता । साकेता नगरी भूयः कृता परमसुन्दरी ॥७॥ रम्या या स्त्रीस्वभावेन कलाज्ञान विशेषतः । आचारमात्रतरतस्या क्रियते भूपणादरः ॥७१॥
भी विनयसे नम्रीभूत दोनों पुत्रोंका बड़े स्नेहके साथ आलिङ्गन किया ॥५६॥ शत्रुघ्न आदि राजा भी इस वृत्तान्तको सुन उस स्थानपर गये और सभी उत्तम आनन्दको प्राप्त हुए ॥५॥ तदनन्तर जब दोनों सेनाओंके स्वामी समागम होनेपर सुख और आश्चर्यसे पूर्ण हो गये तब दोनों सेनाओंका परस्पर समागम हुआ ॥५८।। सीता भी पुत्रोंका माहात्म्य तथा समागम देख निश्चित हृदय हो विमान द्वारा पौण्डरीकपुर वापिस लौट गई ॥५६॥
तदनन्तर संभ्रमसे भरे भामण्डलने आकाशसे उतर कर घाव रहित दोनों भानेजोंको साश्रुदृष्टि से देखते हुए उनका आलिङ्गन किया ॥६०॥ प्रीति प्रकट करनेमें तत्पर हनूमानने भी 'बहुत अच्छा हुआ' इस शब्दका बार-बार उच्चारण कर उन दोनोंका आलिङ्गन किया ॥६१।। विराधित तथा सुग्रीव भी इसी तरह सत्समागमको प्राप्त हुए और विभीषण आदि राजा भी कुमारोंसे वार्तालाप करनेमें तत्पर हुए ॥६॥
अथानन्तर देवोंके समान भूमिगोचरियों तथा विद्याधरोंका वह समागम अत्यधिक महान् आनन्दका कारण हुआ ॥६३।। अत्यन्त सुन्दर पुत्रोंका समागम पाकर जिनका हृदय धैर्यसे भर गया था ऐसे रामने उत्कृष्ट लक्ष्मी धारण की ॥६४। किसी अनिर्वचनीय भावको प्राप्त हुए श्रीरामने उन सुपुत्रोंके लाभको तीनलोकके राज्यसे भी कहीं अधिक सुन्दर माना ॥६५।। विद्याधरोंकी स्त्रियाँ बड़े हर्षके साथ आकाशरूपी आँगनमें और भूमिगोचरियोंकी स्त्रियाँ उन्मत्त संसारकी नाई पृथ्वीपर नृत्य कर रही थीं ।।६६|| हर्षसे जिनके नेत्र फूल रहे थे ऐसे नारायणने अपने आपको कृतकृत्य माना और समस्त संसारको जीता हुआ समझा ॥६७। मैं सगर हूँ और ये दोनों वीर भीम तथा भगीरथ हैं इस प्रकार बुद्धिसे उपमाको करते हुए लक्ष्मण परम दीप्तिको धारण कर रहे थे ॥६८।। परमप्रीतिको धारण करते हुए रामने वनजंघका खूब सम्मान किया और कहा कि सुन्दर हृदयसे युक्त तुम मेरे लिए भामण्डलके समान हो ॥६६॥
तदनन्तर वह अयोध्या नगरी स्वर्गके समान तो पहले ही की जा चुकी थी उस समय और भी अधिक सुन्दर की गई थी।॥७०।। जो स्त्री कला और ज्ञानकी विशेषतासे स्वभावतः
१. सुराणामेव म० । २. कृतौपम्पौ म०, ज० ।
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