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पद्मपुराणे
पृथिव्यां योऽतिनीचोऽपि सीतागुणकथारतः । विनीतस्य गृहे तस्य रत्नवृष्टिनिंपात्यताम् ॥३१॥ अनुरागेण ते धान्यराशिषु क्षेत्रमानवाः । कुर्वन्ति स्थापना 'सस्यसम्पत्प्रार्थनतत्परा ॥३२॥ एतत्ते पुष्पकं देवि प्रेषितं रघुभानुना । प्रसीदारुह्यतामेतद्गम्यतां कोशलां पुरीम् ॥३३॥ पद्मः पुरं च देशश्च न शोभन्ते त्वया विना । यथा तरुगृहाकाशं लतादीपेन्दुमूर्त्तिभिः ॥ ३४ ॥ मुखं मैथिलि पश्याद्य सद्यः पूर्णेन्दुरुक्प्रभोः । ननु पत्युर्वचः कार्यमवश्यं कोविदे त्वया ||३५|| एवमुक्का प्रधानस्त्रीशतोत्तमपरिच्छदा । महद्धर्धा पुष्पकारूढा तरसा नभसा ययौ ॥३६॥ अथायोध्या पुरी दा भास्करं चास्तसङ्गतम् । सा महेन्द्रोदयोद्याने निन्ये चिन्तातुरा निशाम् ॥३७॥ यदुद्यानं पद्मायास्तदासीत् सुमनोहरम् । तदेतत्स्मृतपूर्वायास्तस्या जातमसाम्प्रतम् ॥ ३८ ॥ सीताशुद्ध चनुरागाद्वा पद्मबन्धावधोदिते । प्रसाधितेऽखिले लोके किरणैः किङ्करैरिव ॥ ३६ ॥ शपथादिव दुर्वादे भीते ध्वान्ते क्षयं गते । समीपं पद्मनाभस्य प्रस्थिता जनकात्मजा ॥४०॥ सा करेणुसमारूढा दोर्मनस्याहतप्रभा । भास्करालोकदृष्टेव सानुगाऽऽसीन्महौषधिः ॥ ४१ ॥ तथाप्युत्तमनारीभिरावृता भद्रभावना । रेजे सा नितरां तन्वी ताराभित्र विधोः कला ॥४२॥ ततः परिषदं पृथ्वीं गम्भीरां विनयस्थिताम् । वन्द्यमानेड्यमाना च धीरा रामाङ्गनाविशत् ॥४३॥ विषादी विस्मयी हर्षी संतोभी जनसागरः । वर्द्धस्व जरा नन्देति चकाराम्रेडितं स्वनम् ॥ ४४ ॥
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और जो पृथिवी में अत्यन्त नीच होने पर भी सीताकी गुण कथामें तत्पर हो उस विनीतके घर में रत्नवर्षा की जाय ||३१|| हे देवि ! धान्य रूपी सम्पत्तिकी इच्छा करने वाले खेत के पुरुष अर्थात् कृपक लोग अनुराग वश धान्यकी राशियों में तुम्हारी स्थापना करते हैं ? भावार्थ - लोगों का विश्वास है कि धान्य राशिमें सीताकी स्थापना करनेसे अधिक धान्य उत्पन्न होता है ||३२|| हे देवि ! रामचन्द्र जी ने तुम्हारे लिए यह पुष्पक विमान भेजा है सो प्रसन्न हो कर इस पर चढ़। जाय और अयोध्याकी ओर चला जाय ||३३|| जिस प्रकार लताके बिना वृक्ष, दीपके बिना घर और चन्द्रमा विना आकाश सुशोभित नहीं होते उसी प्रकार तुम्हारे विना राम, अयोध्या नगरी और देश सुशोभित नहीं होते ||३४|| हे मैथिलि ! आज शीघ्र ही स्वामीका पूर्णचन्द्र के समान मुख देखो । हे कोविदे ! तुम्हें पति वचन अवश्य स्वीकृत करना चाहिए ||३५|| इस प्रकार कहने पर सैकड़ों उत्तम स्त्रियों के परिकर के साथ सीता पुष्पक विमान पर आरूढ हो गई और बड़े वैभव के साथ वेगसे आकाशमार्गसे चली ॥ ३६ ॥ अथानन्तर जब उसे अयोध्यानगरी दिखी उसी समय सूर्य अस्त हो गया अतः उसने चिन्तातुर हो महेन्द्रोदय नामक उद्यान में रात्रि व्यतीत की ||३७|| रामके साथ होने पर जो उद्यान पहले उसके लिए अत्यन्त मनोहर जान पड़ता था वही उद्यान पिछली घटना स्मृत होने पर उसके लिए अयोग्य जान पड़ता था ||३८||
अथानन्तर सीताकी शुद्धिके अनुरागसे ही मानों जब सूर्य उदित हो चुका, किङ्करों के समान किरणोंसे जब समस्त संसार अलंकृत हो गया और शपथसे दुर्वाद के समान जब अन्धकार भयभीत हो क्षयको प्राप्त हो गया तत्र सीता रामके समीप चली ॥ ३६-४० ॥ मनकी अशान्तिसे जिसकी प्रभा नष्ट हो गई थी ऐसी हस्तिनीपर चढ़ी सीता, सूर्यके प्रकाशसे आलोकित, पर्वत के शिखर पर स्थित महौषधि के समान यद्यपि निष्प्रभ थी तथापि उत्तम स्त्रियों से घिरी, उच्च भावनावाली दुबली पतली सीता, ताराओंसे घिरी चन्द्रमा की कलाके समान अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ।।४१-४२॥
तदनन्तर जिसे सब लोग वन्दना कर रहे थे तथा जिसकी सब स्तुति कर रहे थे ऐसी धीर वोरा सीताने विशाल, गम्भीर एवं विनयसे स्थित सभामें प्रवेश किया ||४३|| विषाद, विस्मय,
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१. प्रार्थनां म० । २. शस्य - म० । ३. चारुसङ्गतं म० ।
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