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चतुरुत्तरशतं पव
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सुप्रपञ्चाः कृता मंचाः क्रीडापर्वतसुन्दराः । विशालाः परमाः शाला मण्डिता 'दूष्यमण्डपाः ॥१५॥ अनेकपुरसम्पन्नाः प्रासादाः स्तम्भधारिताः । उदारजालकोपेता रचितोदारमण्डपाः ॥१६॥ तेषु स्त्रियः समं स्त्रीभिः पुरुषाः पुरुषः समम् । यथायोग्यं स्थिताः सर्वे शपथेक्षणकांक्षिणः ॥१७॥ शयनासनताम्बूलभक्तमाल्यादिनाऽखिलम् । कृतमागन्तुलोकस्य सौस्थित्यं राजमानवैः ॥१८॥ ततो रामसमादेशात्प्रभामण्डलसुन्दरः । लकेशो वायुपुत्रश्च किष्किन्धाधिपतिस्तथा ॥१६॥ चन्द्रोदरसुतो रत्नजटी चेति महानृपाः । पौंडरीकं पुरं याता बलिनो नभसा क्षणात् ॥२०॥ ते विन्यस्य बहिः सैन्यमन्तरङ्गजनान्विताः । विविशुर्जानकीस्थानं ज्ञापिताः सानुमोदनाः ॥२१॥ विधाय जयशब्दं च प्रकीर्य कुसुमाञ्जलिम् । पादयोः पाणियुग्माङ्कमस्तकेन प्रणम्य च ॥२२॥ उपविष्टा महीपृष्ठे चारुकुट्टिमभासुरे । क्रमेण सङ्कथां चक्रः पौरस्त्या विनयानताः ॥२३॥ सम्भाषिता सुगम्भीरा सीतास्त्रपिहितेक्षणा । आत्माभिनिन्दनाप्रायं जगाद परिमन्थरम् ॥२४॥ असजनवचोदावदग्धान्यङ्गानि साम्प्रतम् । क्षीरोदधिजलेनापि न मे गच्छन्ति निर्वृतिम् ॥२५।। ततस्ते जगदुर्देवि भगवत्यधुनोसमे । शोकं सौम्ये च मुञ्चस्व प्रकृतौ कुरु मानसम् ॥२६॥ असुमान्विष्टपे कोऽसौ स्वयि यः परिवादकः । कोऽसौ चालयति क्षोणीं वहः पिबति कः शिखाम् ॥२७॥ सुमेरुमूर्तिमुक्षेप्तुं साहसं कस्य विद्यते । जिह्वया लेढि मूढात्मा कोऽसौ चन्द्रार्कयोस्तनुम् ॥२८॥ गुणरत्नमहीधं ते कोऽसौ चालयितुं क्षमः । न स्फुटत्यपवादेन कस्य जिह्वा सहस्रधा ॥२६॥
अस्माभिः किङ्करगणा नियुक्ता भरतावनौ । परिवादरतो देव्या दुष्टात्मा वध्यतामिति ॥३०॥ क्रीडा-पर्वतोंके समान लम्वे चौड़े मश्च तैयार किये गये, उत्तमोत्तम विशाल शालाएँ, कपड़े उत्तम तम्बू , तथा जिनकी अनेक गाँव समा जावें ऐसे खम्भों पर खड़े किये गये, बड़े बड़े झरोखोंसे युक्त तथा विशाल मण्डपोंसे सुशोभित महल बनवाये गये ॥१५-१६॥ उन सब स्थानों में स्त्रियाँ खियोंके साथ और पुरुष पुरुषोंके साथ, इस प्रकार शपथ देखनेके इच्छुक सब लोग यथायोग्य ठहर गये ॥१७॥ राजाधिकारी पुरुषोंने आगन्तुक मनुष्यों के लिए शयन आसन ताम्बूल भोजन तथा माला आदिके द्वारा सब प्रकारकी सुविधा पहुँचाई थी ॥१८॥
तदनन्तर रामकी आज्ञासे भामण्डल, विभीषण, हनूमान् , सुग्रीव, विराधित और रत्नजटी आदि बड़े बड़े बलवान् राजा क्षणभरमें आकाश मार्गसे पौण्डरीकपुर गये ॥१६-२०॥ वे सब, सेनाको बाहर ठहरा कर अन्तरङ्ग लोगोंके साथ सूचना देकर तथा अनुमति प्राप्त कर सीताके स्थानमें प्रविष्ट हुए ॥२१॥ प्रवेश करते ही उन्होंने सीतादेवीका जय जयकार किया, पुष्पाञ्जलि विखेरी, हाथ जोड़ मस्तकसे लगा चरणोंमें प्रणाम किया, सुन्दर मणिमय फर्ससे सुशोभित पृथिवी पर बैठे और सामने बैठ विनयसे नम्रीभूत हो क्रमपूर्वक वार्तालाप किया ॥२२-२३॥ तदनन्तर संभाषण करनेके बाद अत्यन्त गम्मीर सीता, आंसुओंसे नेत्रोंको आच्छादित करती हुई अधिकांश आत्म निन्दा रूप वचन धीरे धीरे बोली ॥२४॥ उसने कहा कि दुर्जनोंके वचन रूपी दावानलसे जले हुए मेरे अङ्ग इस समय क्षीरसागरके जलसे भी शान्तिको प्राप्त नहीं हो रहे हैं ॥२५॥ तब उन्होंने कहा कि हे देवि ! हे भगवति ! हे उत्तमे ! हे सौम्ये ! इस समय शोक छोड़ो और मनको प्रकृतिस्थ करो ॥२६।। संसारमें ऐसा कौन प्राणी है जो तुम्हारे विषयमें अपवाद करने वाला हो। वह कौन है जो पृथिवी चला सके और अग्निशिखाका पान कर सके ? ॥२७॥ सुमेरु पर्वतको उठानेका किसमें साहस है ? चन्द्रमा और सूर्यके शरीरको कौन मूर्ख जिह्वासे चाटता है ? ॥२८॥ तुम्हारे गुण रूपी पर्वतको चलानेके लिए कौन समर्थ है ? अपवादसे किसकी जिह्वा
बजार टकडे नहीं होते ? ॥२६॥ हम लोगोंने भरत क्षेत्रकी भूमिमें किंकरोंके समूह यह कह कर नियुक्त कर रक्खे हैं कि जो भी देवीकी निन्दा करने में तत्पर हो उसे मार डाला जाय ॥३०॥ १. वस्त्रनिर्मितमण्डपाः । २. आत्मभिनन्दनप्रायं म० । ३. गच्छति म । For Private & Personal Use Only
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