________________
चतुरुत्तरशतं पर्व
२७५
एवमस्त्विति वैदेही जगौ सम्मदिनी ततः। दिव्यः पञ्चभिरप्येषा लोक प्रत्याययाम्यहम् ॥७॥ विषाणां विषमं नाथ कालकूटं पिबाम्यहम् । आशीविषोऽपि यं घ्रात्वा सद्यो गच्छति भस्मताम् ॥७॥ आरोहामि तुलां वहिवाला रौद्रां विशामि वा । यो वा भवदभिप्रेतः समयस्तं करोम्यहम् ॥७६॥ क्षणं विचिन्त्य पद्माभो जगौ वह्नि विशेत्यतः । जगौ सीता विशामोति महासम्मदधारिणी॥७७॥ प्रतिपन्नोऽनया मृत्युरित्यदीर्यत' नारदः । शोकोत्पीडैरपीड्यन्त श्रीशैलाथा नरेश्वराः ॥७॥ पावकं प्रविविक्षन्तीं परिनिश्चित्य मातरम् । चक्रतुस्तदति बुद्धावात्मनोलवणाङ्कुशौ ॥७॥ महाप्रभावसम्पन्नः प्रहर्ष धारयस्ततः । सिद्धार्थक्षुल्लकोऽवोचदुद्धृत्य भुजमुन्नतम् ॥८॥ न सुरैरपि वैदेयाः शीलवतमशेषतः । शक्यं कीर्तयितु कैव कथा क्षुद्रशरीरिणाम् ॥८॥ पातालं प्रविशेन्मेरुः शुष्येयुर्मकरालयाः । न पद्मचलनं किञ्चित्सीताशीलव्रतम्य तु ॥२॥ इन्दुरकत्वमागच्छेदः शीतांशुतां व्रजेत् । न तु सीतापरीवादः कथञ्चित्सत्यतां व्रजेत् ॥३॥ विद्याबलसमृद्धेन मया पञ्चसु मेरुषु । वन्दना जिनचन्द्राणां कृता शाश्वतधामसु ॥८॥ सा मे विफलतां यायात्पद्मनाभ सुदुर्लभा । विपत्तिर्यदि सीतायाः शीलस्यास्ति मनागपि ॥५॥ भूरिवर्षसहस्राणि सचेलेन मया कृतम् । तपस्तेन शपे नाहं यथेमौ तव पुत्रको ॥६॥ भीमज्वालावलोभङ्गं सर्वभङ्ग सुनिष्ठुरम् । मा विशेदनलं सीता तस्मात्पन्न विचक्षण ॥८॥
शङ्का दूर करो ॥७२-७३॥ तब सीताने हर्षयुक्त हो 'एवमस्तु' कहते हुए कहा कि मैं पाँचों ही दिव्य शपथोंसे लोगोंको विश्वास दिलाती हूँ ॥७४॥ उसने कहा कि हे नाथ ! मैं उस कालकूटको पी सकती हूँ जो विषों में सबसे अधिक विषम है तथा जिसे सूघंकर आशीविष सर्प भी तत्काल भस्मपनेको प्राप्त हो जाता है ।।७।। मैं तुलापर चढ़ सकती हूँ अथवा भयङ्कर अग्निकी ज्वालामें प्रवेश कर सकती हूँ अथवा जो भी शपथ आपको अभीष्ट हो उसे कर सकती हूँ ।।७६॥ क्षणभर विचारकर रामने कहा कि अच्छा अग्निमें प्रवेश करो। इसके उत्तरमें सीताने बड़ी प्रसन्नतासे कहा कि हाँ, प्रवेश करती हूँ ॥७७॥ 'इसने मृत्यु स्वीकृत कर ली' यह विचारकर नारद विदीर्ण हो गया और हनूमान् आदि राजा शोकके भारसे पीडित हो उठे ॥७॥ 'माता अग्निमें प्रवेश करना चाहती है। यह निश्चयकर लवण और अङ्कशने बुद्धि में अपनी भी उसी गतिका बिचार कर लिया अर्थात् हम दोनों भी अग्निमें प्रवेश करेंगे ऐसा उन्होंने मनमें निश्चय कर लिया ||७६! तदनन्तर महाप्रभावसे सम्पन्न एवं बहुत भारी हर्षको धारण करनेवाले सिद्धार्थ क्षुल्लकने भुजा ऊपर उठाकर कहा कि सीताके शीलवतका देव भी पूर्णरूपसे वर्णन नहीं कर सकते फिर शुद्र प्राणियोंकी तो कथा ही क्या है ? ॥८०-८१।। हे राम ! मेरु पातालमें प्रवेश कर सकता है और समुद्र सूख सकते हैं परन्तु सीताके शीलवतमें कुछ चन्चलता उत्पन्न नहीं की जा सकती ।।८१॥ चन्द्रमा सूर्यपनेको प्राप्त हो सकता है और सूर्य चन्द्रपनेको प्राप्त कर सकता है परन्तु सीताका अपवाद किसी भी तरह सत्यताको प्राप्त नहीं हो सकता ॥८२-८३॥ मैं विद्याबलसे समृद्ध हूँ और और मैंने पाँचों मेरु पर्वतोपर स्थित शाश्वत-अकृत्रिम चैत्यालयोंमें जो जिन-प्रतिमाएँ हैं उनकी वन्दना की है। हे राम ! मैं जोर देकर कहता हूँ कि यदि सीताके शीलमें थोड़ी भी कमी है तो मेरी वह दुर्लभ वन्दना निष्फलताको प्राप्त हो जाय ॥८४-८५॥ मैंने वस्त्रखण्ड धारण कर कई हजार वर्षे तक तप किया सो यदि ये तुम्हारे पुत्र न हों तो मैं उस तपकी शपथ करता हूँ अर्थात् तपकी शपथपूर्वक कहता हूँ कि ये तुम्हारे ही पुत्र हैं ॥५६॥ इसलिए हे बुद्धिमन् राम ! जिसमें भयङ्कर ज्वालावली रूप लहरें उठ रही हैं तथा जो सबका संहार करनेवाली है ऐसी अग्निमें
१. रित्युदीर्यत म०। २. विपुलतां म०। ३. ततस्तेन म० । ४. ज्वालावती- म०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org