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पद्मपुराणे
व्योग्नि वैद्याधरो लोको धरण्यां धरणीचरः। जगाद साधु साधूक्तमिति मुक्तमहास्वमः ॥८॥ प्रसीद देव पनाम प्रसीद व्रज सौम्यताम् । नाथ मा राम मा राम कार्षीः पावकमानसम् ॥८॥ सती सीता सती सीता न सम्भाव्यमिहान्यथा। महापुरुषपत्नीनां जायते न विकारिता ॥१०॥ इति वाष्पभराद्वाचो गद्गदा जनसागरात् । संक्षुब्धादभिनिश्चेरुयाप्तसर्वदिगन्तराः ॥११॥ महाकोलाहलस्वानः समं सर्वांसुधारिणाम् । अत्यन्तशोकिनां स्थूला निपेतुर्वाष्पबिन्दवः ॥१२॥ पद्मो जगाद यद्येवं भवन्तः करुणापराः। ततः पुरा परिवादमभाषिध्वं कुतो जनाः ॥१३॥ एवमाज्ञापयत्तीवमनपेक्षश्च किङ्करान् । आलम्ब्य परमं सत्त्वं विशुद्धिन्यस्तमानसः ॥१४॥ पुरुषौ द्वावधस्तादाक खन्यतामन मेदिनी । शतानि त्रीणि हस्तानां चतुष्कोणा प्रमाणतः ॥१५॥ विधायैवंविधां वापी सुशुप्कैः परिपूर्यताम् । इन्धनैः परमस्थूलः कृष्णागरुकचन्दनैः ॥१६॥ प्रचण्डबहलज्वालो ज्वाल्यतामाशुशुक्षणिः । साक्षान्मृत्यरिवोपात्तविग्रहो निर्विलम्बितम् ॥१७॥ यथाऽऽज्ञापयतीत्युक्त्वा महाकुद्दालपाणिभिः । किकरैस्तत्कृतं सर्व कृतान्तपुरुषोत्तमैः ॥१८॥ यस्यामेवाथ वेलाया संवादः पद्मसीतयोः । क्रियते किक्कीममनुष्ठानं च दाहनम् ॥६६॥ तदनन्तरं शर्बयां ध्यानमुत्तममीयुषः । महेन्द्रोदयमेदिन्यां सर्वभूषणयोगिनः ॥१०॥ उपसर्गो महानासीजनितः पूर्ववैरतः । अत्यन्तरौद्रराक्षस्या विद्युद्वक्त्राभिधानया ॥१०॥
अपृच्छदथ सम्बन्धं श्रेणिको मुनिपुङ्गवम् । ततो गणधरोऽवोचनरेन्द्र श्रयतामिति ॥१०॥ सीता प्रवेश नहीं करे ।।८७॥ नुल्लककी बात सुन आकाशमें विद्याधर और पृथ्वीपर भूमिगोचरी लोग 'अच्छा कहा-अच्छा कहा' इस प्रकारकी जोरदार आवाज लगाते हुए बोले कि 'हे देव प्रसन्न होओ, प्रसन्न होओ, सौम्यताको प्राप्त होओ, हे नाथ ! हे राम ! हे राम! मनमें अग्निका विचार मत करो ॥८८-८६सीता सती है, सीता सती है, इस विषयमें अन्यथा सम्भावन नहीं हो सकती। महापुरुषोंकी पत्नियों में विकार नहीं होता ।।१०। इस प्रकार समस्त दिशाओंके अन्तरालको ब्याप्त करनेवाले, तथा अश्रओंके भारसे गद्गद अवस्थाको प्राप्त हुए शब्द, संक्षुभित जनसागर से निकलकर सब ओर फैल रहे थे ।।६१|| तीव्र शोकसे युक्त समस्त प्राणियोंके आंसुओंकी बड़ी-बड़ी बूंदें महान कलकल शब्दोंके साथ-साथ निकलकर नीचे पड़ रही थीं ॥१२॥
तदनन्तर रामने कहा कि हे मानवो ! यदि इस समय आप लोग इस तरह दया प्रकट करनेमें तत्पर हैं तो पहले आप लोगोंने अपवाद क्यों कहा था ? ॥६३।। इस प्रकार लोगोंके कथनकी अपेक्षा न कर जिन्होंने मात्र विशुद्धतामें मन लगाया था ऐसे रामने परम दृढ़ताका आलम्बनकर किङ्करोंको आज्ञा दी कि ||१४|| यहाँ शीघ्र ही दो पुरुष गहरी और तीन सौ हाथ चौड़ी चौकोन पृथ्वी प्रमाणके अनुसार खोदो और ऐसी वापी बनाकर उसे कालागुरु तथा चन्दनके सूखे और बड़े मोटे ईन्धन परिपूर्ण करो। तदनन्तर उसमें बिना किसी विलम्बके ऐसी अग्नि प्रज्वलित करो कि जिसमें अत्यन्त तीक्ष्ण ज्वालाएँ निकल रही हो तथा जो शरीरधार साक्षात् मृत्युके समान जान पड़ती हो ॥६५-६७|तदनन्तर बड़े-बड़े कुदाले जिनके हाथमें थे तथा जो यमराजके सेवकोंसे भी कहीं अधिक थे ऐसे सेवकोंने 'जो आज्ञा' कहकर रामकी आज्ञानुसार सब काम कर दिया ।
__अथानन्तर जिस समय राम और सीताका पूर्वोक्त संवाद हुआ था तथा किङ्कर लोग जिस समय अग्नि प्रज्वालनका भयङ्कर कार्य कर रहे थे उसी समयसे लगी हुई रात्रिमें सर्वभूषण मुनिराज महेन्द्रोदय उद्यानको भूमिमें उत्तम ध्यान कर रहे थे सो पूर्व वैरके कारण विद्युद्वक्त्रा नामकी राक्षसीने उनपर महान् उपसर्ग किया ॥६६-१०१ तदनन्तर राजा श्रेणिकने गौतमस्वामीसे
१. गद्गदाजन- म० । २. एष श्लोकः म० पुस्तके नास्ति ।
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