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पपपुराणे
हलचक्रधरौ ताभ्यामुपेत्य चोभितौ यतः । सुराणामपि यौ वीरौ न जय्यौ पुरुषोत्तमौ ॥१३६॥ कुमारयोस्तयोर्यावस्प्रमादो नोपजायते । व्रजामस्तावदेवाशु चिन्तयामोऽभिरक्षणम् ॥१३७॥ ततः स्नुषासमेताऽसौ भामण्डलविमानगा। प्रवृत्ता तनयौ तेन वज्रजबलान्वितौ ॥१३॥ रामलचमणयोर्लचमी कोऽसौ वर्णयितुं तमः । इति श्रेणिक संक्षेपास्कीय॑मानमिदं शृणु ॥१३६॥ रथाश्वगजपादातमहार्णवसमावृतौ । वहन्ताविव संरम्भं निर्गतौ रामलक्ष्मणौ ॥१४०॥ भश्वयुक्तरथारूढः शत्रुध्नश्च प्रतापवान् । हारराजितवक्षस्को निर्ययौ युद्धमानसः ॥ १४ ॥ ततोऽभवत्कृतान्तास्यः सर्वसैन्यपुरःसरः। मानी हरिणकेशीव नाकौकासनिकाग्रणीः ॥१४२॥ शरासनकृतच्छायं चतुरङ्ग महाद्युति । अप्रमेयं बलं तस्य प्रतापपरिवारणम् ॥१४३॥ सुरप्रासादसङ्काशो मध्यस्तम्भोऽन्तकध्वजः । शात्रवानीकदुःप्रेक्षो रेजे तस्य महारथः ॥१४४॥ अनुमार्ग निमूनोंऽस्य ततो वह्निशिखो नृपः । सिंहविक्रमनामा च तथा दीर्घभुजश्रुतिः ॥१४५॥ सिंहोदरः सुमेरुश्च बालिखिल्यो महाबलः । प्रचण्डो रौद्रभूतिश्च शरभः स्यन्दनः पृथुः ॥१४६॥ कुलिशश्रवणश्चण्डो मारिदत्तोरणप्रियः । मृगेन्द्रवाहनाद्याश्च सामन्ता मत्तमानसाः ॥१४७॥ सहस्रपञ्चकेयत्ता नानाशस्त्रान्धकारिणः । निर्जग्मुर्वन्दि नां वृन्दैरुगीतगुणकोटयः ॥१४८॥ एवं कुमारकोव्योऽपि कुटिलानीकसङ्गताः । दृष्टप्रत्ययशस्त्रानें क्षणविन्यस्तचक्षुषः ॥१४॥ युद्धानन्दकृतोत्साहा नाथभक्तिपरायणाः । महाबलारस्वरावत्यो निरीयुः कम्पितक्षमाः ॥१५॥ रथैः केचिनगैस्तुङ्गैर्चािपैः केचिद्घनोपमैः । महार्णवतरङ्गाभैस्तुरङ्गैरपरैः परे ॥१५१॥
संशयको प्राप्त हुए है। उन्होंने यह अच्छा नहीं किया ॥१३५। उन्होंने जाकर उन बलभद्र और नारायगको क्षोभित किया है जो पुरुषोत्तम वीर देवोंके भी अजेय हैं ॥१३६।। जब तक उन कुमारीका प्रमाद नहीं होता है तब तक आओ शीघ्र ही चलें और रक्षाका उपाय सोचें ॥१३७॥ तदनन्तर पुत्र-वधुओं सहित सीता भामण्डलके विमानमें बैठ उस ओर चली जिस ओर कि वज्रजङ्घ और सेनासे सहित दोनों पुत्र गये थे ॥१३८।।
अथानन्तर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! राम लक्ष्मणकी पूर्ण लक्ष्मीका वर्णनके लिए कौन समर्थ है ? इसलिए संक्षेपसे ही यहाँ कहते हैं सो सुन ॥१३६॥ रथ, घोड़े, हाथी और पैदल सैनिक रूप महासागरसे घिरे हुए राम लक्ष्मण क्रोधको धारण करते हुएके समान निकले ॥१४०॥ जो घोड़े जुते हुए रथ पर सवार था, जिसका वक्षः स्थल हारसे सुशोभित था तथा जिसका मन युद्धमें लग रहा था ऐसा प्रतापी शत्रुघ्न भी निकल कर बाहर आया ॥१४१॥ जिस प्रकार हरिणकेशी देव सैनिकोंका अग्रणी होता है उसी प्रकार मानी कृतान्तवक्त्र सब सेनाका अग्रसर हुआ ॥१४२॥ जिसमें धनुषोंकी छाया हो रही थी तथा जो महा कान्तिसे युक्त थी ऐसी उसकी अपरिमित चतुरङ्गिणी सेना उसके प्रतापको बढ़ा रही थी ॥१४३।। जिसमें बीचके खम्भा के ऊपर ध्वजा फहरा रही थी, तथा जो शत्रुओंकी सेनाके द्वारा दुर्निरीक्ष्य था ऐसा उसका बड़ा भारी रथ देवोंके महलके समान सुशोभित हो रहा था ॥१४४॥ कृतान्तवक्त्रके पीछे त्रिमूर्ध, फिर अग्निशिख, फिर सिंहविक्रम, फिर दीर्घबाहु, फिर सिंहोदर, सुमेरु, महाबलवान् बालिखिल्य, अत्यन्त क्रोधी रौद्रभूति, शरभ, स्यन्दन, क्रोधी वनकर्ण, युद्धका प्रेमी मारिदत्त, और मदोन्मत्त मनके धारक मृगेन्द्रवाहन आदि पाँच हजार सामन्त बाहर निकले। ये सभी सामन्त नाना शस्त्र रूपी अन्धकारको धारण करनेवाले थे तथा चारणोंके समूह उनके करोड़ों गुणोंका उद्गान कर रहे थे ॥१४५-१४८।। इसी प्रकार जो कुटिक्त सेनाओंसे सहित थी, जिन्होंने विश्वासप्रद शस्त्र के ऊपर क्षण भरके लिए अपनी दृष्टि डाली था, युद्ध सन्बन्धी हर्षसे जिनका उत्साह बढ़ रहा था, जो स्वामीकी भक्तिमें तत्पर थीं, महाबलवान् थीं, शीघ्रतासे सहित थीं और जिन्होंने पृथिवीको कम्पित कर दिया था ऐसी कुमारोंकी अनेक श्रेणियाँ भी बाहर निकलीं ।।१४६-१५०॥ नाना प्रकार
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