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त्र्युत्तरशतं पर्व
भतो मगधराजेन्द्र भवावहितमानसः । निवेदयामि युद्धं ते विशेषकृतवर्तनम् ॥ १॥ सब्येष्टा वज्रजङ्घोऽभूदनङ्गलवणाम्बुधेः । मदनांकुशनाथस्य पृथुः प्रथितविक्रमः ॥२॥ सुमित्रातनुजातस्य चन्द्रोदरनृपात्मजः । कृतान्तवक्त्रतिग्मांशुः पद्मनाभमरुत्वतः ॥३॥ वज्रावत्तं समुद्धृत्य धनुरत्युधुरध्वनिः । पद्मनाभः कृतान्तास्यं जगौ गम्भीरभारतिः ॥४॥ कृतान्तवक्त्र वेगेन रथं प्रत्यरि वाहय । मोघीभवत्तनूभारः किमेवमलसायसे ॥५॥ सोऽवोचव वीक्षस्व वाजिनो जर्जरीकृतान् । अमुना नरवीरेण सुनिशातैः शिलीमुखः ॥६॥ अमी निद्रामिव प्राप्ता देहविद्ाणकारिणीम् । दूरं विकारनिर्मुक्ता जाता गलितरंहसः ॥७॥ नैते चाटुशतान्युक्तान हस्ततलताडिताः । वहन्त्यायतमङ्गं तु क्वणन्तः कुर्वते परम् ॥८॥ शोणं शोणितधाराभिः कुर्वाणा धरणीतलम् । अनुरागमिवोदारं भवते दर्शयन्त्यमी ॥६॥ इमौ च पश्य मे बाहू शरैः कक्कटभेदिभिः । समुत्फुल्लकदम्बस्रग्गुणसाम्यमुपागतौ ॥१०॥ पनोऽवदन्ममाप्येवं कार्मुकं शिथिलायते । ज्ञायते कर्मनिमुक्तं चित्रार्पितशरासनम् ॥११॥ एतन्मुशलरत्नं च कार्येण परिवर्जितम् । सूर्यावर्त्तगुरूभूतं दोदण्डमुपविध्यति ॥१२॥ दुर्वाररिपुनागेन्द्रसृणितां यच्च भूरिशः । गतं" लागलरत्नं मे तदिदं विफलं स्थितम् ।।१३॥ परपक्षपरिक्षोददक्षाणां पारक्षिणाम् । अमोघानां महास्त्राणामीदशी वर्तते गतिः ॥१४॥
अथानन्तर गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे मगधराजेन्द्र ! सावधान चित्त होओ अब मैं तेरे लिए युद्धका विशेष वर्णन करता हूँ ॥११॥ अलङ्गलवण रूपी सागरका सारथि वजज था, मदनाङ्कशका प्रसिद्ध पराक्रमी राजा पृथु, लक्ष्मणका चन्द्रोदरका पुत्र बिराधित और राम रूपी इन्द्रका सारथि कृतान्तवक्त्र रूपी सूर्य था ।।२-३॥ विशाल गर्जना करने वाले रामने गम्भीर बाणी द्वारा वनावर्त नामक धनुष उठा कर कृतान्तवक्त्र सेनापतिसे कहा ॥४॥ कि हे कृतान्तवक्त्र! शत्रुकी ओर शीघ्र ही रथ बढ़ाओ। इस तरह शरीरके भारको शिथिल करते हुए क्यों अलसा रहे हो ? ॥५। यह सुन कृतान्तवक्त्रने कहा कि हे देव ! इस नर वीरके द्वारा अत्यन्त तीक्ष्ण वाणोंसे जर्जर हुए इन घोड़ोंको देखो ॥६॥ वे शरीरको दूर करने वाली निद्राको ही मानो प्राप्त हो रहे है अथवा विकारसे निर्मुक्त हो वेग रहित हो रहे हैं ? ॥७॥ अब ये न तो सैकड़ों मीठे शब्द कहने पर और न हथेलियोंसे ताड़ित होने पर शरीरको लम्बा करते हैं-शीघ्रतासे चलते है किन्तु अत्यधिक शब्द करते हुए स्वयं ही लम्बा शरीर धारण कर रहे है ।नाये रुधिर की धारासे पृथिवीतलको लाल लाल कर रहे हैं सो मानों आपके लिए अपना महान अनुराग ही दिखला रहे हों ॥६॥ और इधर देखो, ये मेरी भुजाए कवचको भेदन करने वाले वाणोंसे फूले हुए कदम्ब पुष्पोंकी मालाके सादृश्यको प्राप्त हो रही हैं ॥१०।। यह सुन रामने भी कहा कि इसी तरह मेरा भी धनुष शिथिल हो रहा है और चित्रलिखित धनुषकी तरह क्रिया शून्य हो रहा है ॥११॥ यह मुशल रत्न कार्यसे रहित हो गया है और सूर्यावर्त धनुषके कारण भारी हुए भुजदण्ड को पीड़ा पहुँचा रहा है ॥१२।। जो दुरि शत्रु रूपी हाथियोंको वश करनेके लिए अनेकों बार अङ्कशएनेको प्राप्त हुआ था ऐसा यह मेरा हल रत्न निष्फल हो गया है ॥१३॥ शत्रुपक्षको नष्ट करने में समर्थ एवं अपने पक्षकी रक्षा करने वाले अमोघ महा शस्त्रोंकी भी ऐसी दशा हो रही है
१. सारथिः। २. द्वारं म० । ३:न्युक्त्वा म०। ४. कणताम् म० । ५. भङ्गं म०। ६. दक्षिणां म०। ७. मतिः मः।
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