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पद्मपुराणे
ऊचतुर्वज्रजङ्गं च मामास्मिन्वसुधातले । सुह्मसिन्धुकलिङ्गाद्या राजानः सर्वसाधनाः ॥४६॥ भाज्ञाप्यन्तां यथा क्षिप्रमयोध्यागमनं प्रति । सज्जीभवत सर्वेण रणयोग्येन वस्तुना ॥४७॥ संलच्यन्तां महानागा विमदा मदशालिनः । समुद्भूतमहाशब्दा वाजिनो वायुरंहसः ॥४८॥ योधाः कटकविख्याताः समरादपलायिनः । निरीच्यन्तां सुशस्त्राणि माज्यतां कण्टकादिकम् ॥४६॥ तूर्यनादा प्रदाप्यन्तां शङ्खनिः स्वानसङ्गताः । महाहवसमारम्भसम्भाषणविचक्षणाः ॥५०॥ एवमाज्ञाप्य सङ्ग्रामसमानन्दसमागतम् । आधाय मानसे धीरौ महासम्मदसङ्गतौ ॥५१॥ शकाविव विनिश्चिन्त्य त्रिदशान् धरणीपतीन् । महाविभवसम्पन्नौ यथास्वं तस्थतुः सुखम् ॥५२॥ ततस्तयोः समाकर्ण्य पद्मनाभाभिषेणनम् । उत्कण्ठां बिभ्रती तुङ्गां रुरोद जनकात्मजा ॥५३॥ ततः सीतासमीपस्थं सिद्धार्थो नारदं जगौ । इदमीदृक्त्वयाऽऽरब्धं कथं कार्यमशोभनम् ॥ ५४ ॥ सम्प्रोत्साहनशीलेन रणकौतुकिना परम् । स्वयेदं रचितं पश्य कुटुम्बस्य विभेदनम् ॥ ५५ ॥ स जगाद न जानामि वृत्तान्तमहमीदृशम् । यतः सङ्कथनं न्यस्तं पद्मलक्ष्मणगोचरम् ॥ ५६ ॥ एवं गतेऽपि मा भैषीह किञ्चिदसुन्दरम् । भविष्यतीति जानामि स्वस्थतां नीयतां मनः ॥५७॥ ततः समीपतां गत्वा तां कुमाराववोचताम् । अम्बेदं रुद्यते कस्माद्वदाक्षेपविवर्जितम् ॥ ५८ ॥ प्रतिकूलं कृतं केन केन वा परिभाषितम् । दुर्भानसस्य कस्याद्य करोम्यसुवियोजनम् ॥ ५६ ॥ अनपकरः कोऽसौ क्रीडनं कुरुतेऽहिना । कोऽसौ ते मानवः शोकं करोति त्रिदशोऽपि वा ॥ ६०॥ कस्यासि कुपिता मातर्जनस्य गलितायुषः । प्रसादः क्रियतामस्त्र शोकहेतु निवेदने ॥ ६१ ॥
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जीतनेके लिए चलते हैं | इस पृथिवीरूपी कुटिया में किसी दूसरेकी प्रधानता कैसे रह सकती है ? ||४५|| उन्होंने वज्रजंघसे भी कहा कि हे माम ! इस वसुधा तल पर जो सुझ, सिन्धु तथा कलिङ्ग आदि सर्वसाधनसम्पन्न राजा हैं उन्हें आज्ञा दी जाय कि आप लोग अयोध्या के प्रति चलनेके लिए रण के योग्य सब वस्तुएँ लेकर शीघ्र ही तैयार हो जावें ॥४६-४७ ॥ मद रहित तथा मद सहित बड़े-बड़े हाथी, महाशब्द करनेवाले तथा वायुके समान शीघ्रगामी घोड़े, सेनामें प्रसिद्ध तथा युद्ध से नहीं भागनेवाले योद्धा देखे जावें, उत्तम शस्त्रोंका निरीक्षण किया जाय, कवच आदि साफ किये जावें और महायुद्धके प्रारम्भकी खबर देने में निपुण तथा शङ्खके शब्दोंसे मिश्रित तुरहीके शब्द दिलाये जावें ॥४८-५० | इस प्रकार राजाओंको आज्ञा दे जो प्राप्त हुए युद्ध सम्बन्धी आनन्दको हृदयमें धारण कर अत्यधिक हर्षसे युक्त थे ऐसे धीर-वीर तथा महावैभवसे सम्पन्न दोनों कुमार उन इन्द्रोंके समान जो देवोंको आज्ञा देकर निश्चिन्त हो जाते हैं निश्चिन्त हो यथा योग्य सुख से विद्यमान हुए ।।५१-५२॥
तदनन्तर उनकी रामके प्रति चढ़ाई सुन अत्यधिक उत्कण्ठाको धारण करती हुई सीता रोने लगी ||५.३|| तत्पश्चात् सीताके समीप खड़े नारदसे सिद्धार्थने कहा कि तुमने यह ऐसा अशोभन कार्य क्यों प्रारम्भ किया ? || ५४|| रणके कौतुकी एवं रणका प्रोत्साहन देनेवाले तुमने देखो यह कुटुम्बका बड़ा भेद कर दिया है-वरमें बड़ी फूट डाल दी है ॥५५॥ नारद ने कहा कि मैं इस वृत्तान्तको ऐसा थोड़े ही जानता था । मैंने तो केवल उनके सामने राम-लक्ष्मण सम्बन्धी चर्चा ही रक्खी थी || ५६|| किन्तु ऐसा होने पर भी डरो मत कुछ भी अशोभन कार्य नहीं होगा यह मैं जानता हूँ अतः मनको स्वस्थ करो || ५७ ॥ तदनन्तर दोनों कुमार समीप जाकर सीतासे बोले कि हे अम्ब ! क्यों रो रही हो ? बिना किसी विलम्बके शीघ्र
कहो ||५८|| किसने तुम्हारे विरुद्ध काम किया है अथवा किसने तुम्हारे विरुद्ध कुछ कहा है ? आज किस दुष्ट हृदयके प्राणोंका वियोग करूँ ? ॥ ५६ ॥ ओषधि जिसके हाथ में नहीं ऐसा वह कौन मनुष्य साँपके साथ क्रीड़ा करता है ? वह कौन मनुष्य अथवा देव है जो तुम्हें शोक उत्पन्न करता है ? || ६० || हे मातः ! आज किस क्षीणायुष्क पर कुपित हुई हो ? हे अम्ब ! शोक
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