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द्वत्तरशतं पर्व
विशुद्ध गोत्र चारित्रहृदया गुणशालिनी । अष्टयोषित्सहस्राणामग्रणीः सुविचक्षणा ॥ ३१ ॥ सावित्रींसह गायत्रीं श्रियं कीर्त्ति धृतिं द्वियम् । पवित्रत्वेन निर्जित्य स्थिता जैनश्रुतेः समा ॥ ३२॥ नूनं जन्मान्तरोपात्तपापकर्मानुभावतः । जनापवादमात्रेण व्यक्ताऽसौ विजने वने ॥ ३३ ॥ दुर्लोकधर्मभानूक्तिदीधितिप्रतितापिता । प्रायेण विलयं प्राप्ता सती सा सुखवद्धिता ॥३४॥ सुकुमाराः प्रपद्यन्ते दुःखमप्यणुकारणात्' । ग्लायन्ति मालतीमालाः प्रदीपालोकमात्रतः ॥ ३५॥ अरण्ये किं पुनर्भीमे व्यालजालसमाकुले । वैदेही धारयेत् प्राणानसूर्यम्पश्यलोचना ॥ ३६ ॥ जिह्वा दुष्टभुजङ्गीव सन्दूष्यानागसं जनम् । कथं न पापलोकस्य व्रजत्येवं निवर्त्तनम् ||३७|| आर्जवादिगुणश्लाध्यामस्यन्तविमलां सतीम् । अपोद्य तादृशीं लोको दुःखं प्रेत्येह चाश्नुते ॥३८॥ अथवा स्वोचिते नित्यं कर्मण्याश्रितजागरे । किमत्र भाध्यतां कस्य संसारोऽत्र जुगुप्सितः ॥ ३६ ॥ इत्युक्त्वा शोकभारेण समाक्रान्तमना मुनिः । न किञ्चिच्छक्नुवन्वक्तुं मौनयोगमुपाश्रितः ॥४०॥ अथाङ्कुशो विहस्योचे ब्रह्मन्न कुलशोभनम् । कृतं रामेण वैदेहीं मुञ्चता भीषणे वने ॥४१॥ arat जनवादस्य निराकरणहेतवः । सन्ति तत्र किमित्येवं विद्धां किल चकार सः ॥४२॥ अनङ्गलवणोऽवोचद्विनीता नगरी मुने । कियद्दूरं ततोऽवोचदवद्वारगतिप्रियः ॥ ४३ ॥ योजनानामयोध्या स्यादितः षष्ट्यधिकं शतम् । यस्यां स वर्तते रामः शशाङ्कविमलप्रियः ॥ ४४ ॥ कुमारावूचतुर्यावस्तं निर्जंतु किमास्यते । महीकुटीर के हास्मिन् कस्यान्यस्य प्रधानता ॥ ४५॥
आँसू छलक आये थे ऐसे नारदने कथा पूरी करते हुए कहा ||३०|| कि उसका गोत्र, चारित्र तथा हृदय. अत्यन्त शुद्ध है, वह गुणोंसे सुशोभित हैं, आठ हजार स्त्रियोंकी अग्रणी हैं, अतिशय पण्डिता हैं, अपनी पवित्रता से सावित्री, गायत्री, श्री, कीर्ति, धृति और ही देवीको पराजितकर विद्यमान हैं तथा जिनवाणीके समान हैं ।। ३१-३२॥ निश्चित ही जन्मान्तर में उपार्जित पाप कर्मके प्रभाव से केवल लोकापवादके कारण उन्होंने उसे निर्जन वनमें छोड़ा है ||३३|| सुख से वृद्धिको प्राप्त हुई वह सती दुर्जनरूपी सूर्यकी कटूक्तिरूपी किरणोंसे संतप्त होकर प्रायः नष्ट हो गई होगी ||३४|| क्योंकि सुकुमार प्राणी थोड़े ही कारणसे दुःखको प्राप्त हो जाते हैं जैसे कि मालती की माला दीपक प्रकाशमात्रसे मुरझा जाती है ॥ ३५ ॥ जिसने अपने नेत्रोंसे कभी सूर्य नहीं देखा ऐसी सीता हिंसक जन्तुओंसे भरे हुए भयंकर वनमें क्या जीवित रह सकती है ? ॥ ३६ ॥ पापी मनुष्य की जिह्वा दुष्ट भुजङ्गीके समान निरपराध लोगोंको दूषित कर निवृत्त क्यों नहीं होती है ? ||३७॥ आर्जवादि गुणोंसे प्रशंसनीय और अत्यन्त निर्मल सीता जैसी सतीका जो अपवाद करता है वह इस लोक तथा परलोक दोनों ही जगह दुःखको प्राप्त होता है ||३८|| अथवा अपने द्वारा वंचित कर्म आश्रित प्राणीके नष्ट करनेके लिए जहाँ सदा जागरूक रहते हैं वहाँ किससे क्या कहा जाय ? इस विषय में तो यह संसार ही निन्दाका पात्र है ||३६|| इतना कहकर जिनका शोक भारसे आक्रान्त हो गया था ऐसे नारदमुनि आगे कुछ भी नहीं कह सके अतः चुप बैठ गये ||४०||
अथानन्तर अङ्कुशने हँस कर कहा कि हे ब्रह्मन् ! भयंकर वनमें सीताको छोड़ते हुए रामने कुलकी शोभा के अनुरूप कार्य नहीं किया ||४१ || लोकापवादके निराकरण करनेके अनेक उपाय हैं फिर उनके रहते हुए क्यों उन्होंने इस तरह सीताको विद्ध किया - घायल किया ॥४२॥ अनंगलवण नामक दूसरे कुमारने भी कहा कि हे मुने ! यहाँ से अयोध्या नगरी कितनी दूर है ? इसके उत्तर में भ्रमण के प्रेमी नारदने कहा कि वह अयोध्या यहाँ से साठ योजन दूर है जिसमें चन्द्रमा के समान निर्मल प्रिया के स्वामी र म रहते हैं ॥४३ - ४४ ॥ यह सुन दोनों कुमारोंने कहा कि हम उन्हें
१. मप्यनुकारणात् म० । २. व्रजत्यवनिवर्तनम् म० ।
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