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पद्मपुराणे
सुझाङ्गा वङ्गमगधप्रभृतिक्षितिगोचराः । समन्तेन महीपालाः प्रस्थिताः सुमहाबलाः ॥४३॥ रथाश्वनागपादाताः कटकेन समावृताः । वज्रजङ्घ प्रति क्रुद्धाः प्रययुस्ते सुतेजसः ॥४॥ रधेभतुरगस्थानं श्रुत्वा तूर्यस्वनान्वितम् । सामन्ता वज्रजङ्घीयाः सन्नद्धा योधुमुखताः॥४५॥ प्रत्यासन्नं समायाते सेनाऽस्यद्वितये ततः । परानीकं महोत्साहौ प्रविष्टौ लवणाङ्कुशौ ॥४६॥ अतिक्षिप्रपरावत्तौं तावुदाररुषाविव । आरेभाते परिक्रीडां परसेन्यमहाहदे ॥४७॥ इतस्ततश्च तौ दृष्टादृष्टौ विद्यलतोपमौ । दालचयत्वमापनौ परासोढपराक्रमौ ॥४॥ गृह्यन्तौ सन्दधानी वा मुञ्चन्तौ वा शिलीमुखान् । नादृश्येतामदृश्यन्त केवलं निहताः परे ॥४६॥ विभिन्नैः विशिग्वैः क्रूरैः पतितैः सह वाहनः । महीतलं समाक्रान्तं कृतमत्यन्तदुर्गमम् ॥५०॥ निमेषेण पराभग्नं सैन्यमुन्मत्तसन्निभम् । द्विपयूथं परिभ्रान्तं सिंहवित्रासितं यथा ॥५१॥ ततोऽसौ क्षणमात्रेग पृथुराजस्य वाहिनी । लवणाङ्कुशसूर्येषुमयूखैः परिशोषिता ॥५२॥ कुमारयोस्तयोरिच्छामन्तरेण भयार्दिताः । अर्कतूलसमूहाभा नष्टा शेषा यथा ककुम् ॥५३॥ असहायो विषण्णात्मा पृथुर्भङ्गपथे स्थितः । अनुधाव्य कुमाराभ्यां सचापाभ्यामितीरितः ॥५४॥ नरखेट पृथो व्यर्थ क्वाद्यापि प्रपलाय्यते । एतौ तावागतावावामज्ञातकुलशीलकौ ॥५५॥ अज्ञातकुलशीलाभ्यामावाभ्यां त्वं ततोऽन्यथा। पलायनमिदं कुर्वन् कथं न पसेऽधुना ॥५६॥ ज्ञापयावोऽधुनात्मीये कुलशीले शिलीमुखः । अवधानपरस्तिष्ठ बलाद्वा स्थाप्यसेऽथवा ॥५॥
लड़के तथा एक बर्तन में खानेवाले परमप्रीतिसे युक्त अन्य लोग एवं सुझ, अङ्ग, वङ्ग, मगध आदि के महाबलवान् राजा उसके साथ चले ॥४२-४३।। कटक-सेनासे घिरे हुए परम प्रतापी रथ, घोड़े, हाथी तथा पैदल सैनिक क्रुद्ध होकर वज्रजंघकी ओर बढ़े चले आ रहे थे।॥४४॥ रथ, हाथी और घोड़ोंके स्थानको तुरहीके शब्दसे युक्त सुनकर वनजंघके सामन्त भी युद्ध करनेके लिए उद्यत हो गये ॥४५॥ तदनन्तर जब दोनों सेनाओंके अग्रभाग अत्यन्त निकट आ पहुँचे तब अत्यधिक उत्साहको धारण करनेवाले लवण और अङ्कश शत्रुकी सेनामें प्रविष्ट हुए ॥४६॥ अत्यधिक शीघ्रतासे घूमनेवाले वे दोनों कुमार, महाक्रोधको धारण करते हुएके समान शत्रुदलरूपी महासरोवरमें सब ओर क्रीड़ा करने लगे ॥४७॥ बिजलीरूपी लताकी उपमाको धारण करनेवाले वे कुमार कभी यहाँ और कभी वहाँ दिखाई देते थे और फिर अदृश्य हो जाते थे । शत्रु जिनका पराक्रम नहीं सह सका था ऐसे वे दोनों वीर बड़ी कठिनाईसे दिखाई देते थे अर्थात् उनकी ओर आँख उठाकर देखना भी कठिन था ।।४।। बाणोंको ग्रहण करते, डोरीपर चढ़ाते और छोड़ते हुए वे दोनों कुमार दिखाई नहीं देते थे, केवल मारे हुए शत्रु ही दिखाई देते थे ।।४ा तीक्ष्म बाणों द्वारा घायल होकर गिरे हुए वाहनोंसे व्याप्त हुआ पृथिवीतल अत्यन्त दुर्गम हो गया था ॥५०॥ शत्रुको सेना पागलके समान निमेषमात्रमें पराभूत हो गई-तितर-बितर हो गई और हाथियोंका समूह सिंहसे डराये हुएके समान इंधर-उधर दौड़ने लगा ।।५१।। तदनन्तर पृथु राजा की सेनारूपी नदी, लवणाङ्कशरूपी सूर्यकी बाणरूपी किरणोंसे क्षणमात्रमें सुखा दी गई ॥५२॥ जो योद्धा शेष बचे थे वे भयसे पीड़ित हो अर्कतूलके समूहके समान उन कुमारोंकी इच्छाके विना ही दिशाओंमें भाग गये ॥५३॥ असहाय एवं खेदखिन्न पृथु पराजयके मार्गमें स्थित हुआ अर्थात् भागने लगा तब धनुर्धारी कुमारोंने उसका पीछाकर उससे इस प्रकार कहा कि अरे नीच नरपृथु ! अब व्यर्थ कहाँ भागता है ? जिनके कुल और शीलका पता नहीं ऐसे ये हम दोनों आ गये ।।५४-५५।। जिनका कुल और शील अज्ञात है ऐसे हम लोगोंसे भागता हुआ तू इस समय लजित क्यों नहीं होता है ? ॥५६।। अब हम बाणोंके द्वारा अपने कुल और शीलका पता
१. परसैन्यं महाहदे म० । २. परिभ्रान्तैः म० ।
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