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पभपुराणे
भारात्पुत्रौ समालोक्य कृतकृत्यावुपागतौ । निममज्जेव वैदेही 'सिन्धावमृतवारिणि ॥१०३।।
आर्या छन्दः विरचितकरपुटकमलौ जननीमुपगम्य सादरौ परमम् । नेमतुरवनतशिरसौ सैन्यरजोधूसरौ वीरौ ।।१०४।। तनयस्नेहप्रवणा पद्मप्रमदा सुतौ परिष्वज्य । करतलकृतपरमर्शा शिरसि निनिक्षोत्तमानन्दा ॥१०५॥ जननीजनितं तौ पुनरभिनन्ध परं प्रसादमानत्या।
रविचन्द्राविव लोकव्यवहारकरौ स्थिती योग्यम् ।।१०६॥ इत्यार्षे श्रीरविषेणाचार्यप्रोक्ते श्रीपद्मपुराणे लवणाङ कुशदिग्विजयकीर्तनं नामैकाधिकशतं पर्व ॥११॥
अशक्य है ॥१०२॥ कृतकृत्य होकर पास आये हुए पुत्रोंको देखकर सीता तो मानो अमृतके समुद्र में ही डूब गई ॥१०३।। तदनन्तर जिन्होंने कमलके समान अञ्जलि बाँध रक्खी थी, जो अत्यधिक आदरसे सहित थे, जिनके शिर झुके हुए थे तथा जो सेना की धूलिसे धूसर थे ऐसे दोनों वीरोंने पास आकर माताको नमस्कार किया ॥१०४।। जो पुत्रोंके प्रति स्नेह प्रकट करनेमें निपुण थी, हस्ततलसे जो उनका स्पर्श कर रही थी तथा जो उत्तम आनन्दसे युक्त थी ऐसी रामकी पत्नी-सीताने उनका मस्तक चूमा ॥१०५।। तदनन्तर वे माताके द्वारा किये हुए परम प्रसादको पुनः पुनः नमस्कारके द्वारा स्वीकृत कर सूर्य चन्द्रमाके समान लोक व्यवहारको सम्पन्न करते हुए यथायोग्य सुखसे रहने लगे ॥१०६॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध श्रीरविषेणाचार्य द्वारा रचित श्री पद्मपुराणमें लवणांकुश
की दिग्विजयका वर्णन करनेवाला एकसौ एकवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥१०॥
१. सिद्धा-म० । २.चुचुम्ब | ३, जननी जनिती। ४. प्रसादमानयत्या म०।
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