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पद्मपुराणे
चतुरङ्गाकुले भीमे परमे समराङ्गणे । जिल्ला कुबेरकान्तं तौ पूर्यमाणबलौ भृशम् ॥७२॥ सहस्त्रैर्नरनाथानामावृतौ वश्यतां गतैः । कृच्छ्राधिगमने यानैर्लम्पाकविषयं गतौ ॥ ७३ ॥ एककर्ण विनिर्जित्य राजानं तत्र पुष्कलम् । गतौ मार्गानुकूलत्वानरेन्द्रौ विजयस्थलीम् ॥७४॥ तत्र भ्रातृशतं जित्वा समालोकनमात्रतः । गतौ गङ्गां समुत्तीयं कैलासस्योत्तरां दिशम् ॥७५॥ तत्र नन्दनचारूणां देशानां कृतसङ्गमौ । पूज्यमानौ नरश्रेष्ठेर्नानोपायनपाणिभिः ॥७६॥ भाषकुन्तलकालाम्बुनन्दिनन्दन सिंहलान् । शलभाननलांश्चौलान्भीमान् भूतरवादिकाम् ॥७७॥ नृपान् वश्यत्वमानीय सिन्धोः कूलं परं गतौ । परार्णवतटान्तस्थान् चक्रतुः प्रणतावान् ॥७८॥ पुरखेटमटम्बेन्द्रा विषयादीश्वराश्च ये । वशत्त्रे स्थापितास्ताभ्यां कांश्वितान् की संयामि ते ॥७३॥ एते जनपदाः केचिदार्यां म्लेच्छास्तथा परे । विद्यमानद्वयाः केचिद् विविधाचारसम्मताः ||८०|| भीरवो यवनाः कचाश्वारवत्रिजटा नटाः । शककेरल नेपाला मालवारुलशराः ॥ ॥ वृषाण वैद्यकाश्मीरा हिडिम्बा वष्टवर्वराः । त्रिशिराः पारशैलाश्च गौशीलोसीन रामकाः ॥ ८२ ॥ सूर्यारकाः सनर्ताश्च खशा विन्ध्याः शिखापदाः । मेखलाः शूरसेनाश्च बाहीक कोसकाः ॥८३॥ दरीगान्धारसौवीराः पुरीकौबेर कोहराः । अन्धकालकलिङ्गाद्या नानाभाषा पृथगुणाः ॥६४॥ विचित्ररतवस्त्राद्या बहुपादपजातयः । नानाकरसमायुक्ता हेमादिवसुशाकिनः ॥६५॥ देशानामेवमादीनां स्वामिनः समराजिरे । जिताः केचिद्गताः केचित्प्रतापादेव वश्यताम् ॥८६॥ महाविभवैर्युक्ता देशभाजोऽनुरागिणः । लवणाङ्कुशयोरिच्छां कुर्वाणा बभ्रमुर्महीम् ॥६७॥
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मानी राजाको क्षोभयुक्त किया ॥ ७१ ॥ तदनन्तर चतुरङ्ग सेनासे युक्त अत्यन्त भयंकर रणाङ्गण में कुबेरकान्तको जीतकर वे आगे बढ़े, उस समय उनकी सेना अत्यधिक बढ़ती जाती थी ॥७२॥ वहाँ से चलकर आधीनताको प्राप्त हुए हजारों राजाओंसे घिरे हुए लम्पाक देशको गये वहाँ स्थलमार्ग से जाना कठिन था इसलिए नौकाओंके द्वारा जाना पड़ा ॥७३॥ वहाँ एककर्ण नामक राजाको अच्छी तरह जीतकर मार्गकी अनुकूलता होनेसे दोनों ही कुमार विजयस्थली गये ॥ ७४ ॥ वहाँ देखने मात्र से ही सौ भाइयोंको जीतकर तथा गङ्गा नदी उतरकर दोनों कैलास की ओर उत्तर दिशामें गये ॥७५॥ | वहाँ उन्होंने नन्दनवनके समान सुन्दर-सुन्दर देशोंमें अच्छी तरह गमन किया तथा नाना प्रकारको भेंट हाथमें लिये हुए उत्तम मनुष्यों ने उनकी पूजा की।।७६ ॥ तदनन्तर भाषकुन्तल, कालाम्बु, नन्दी, नन्दन सिंहल, शलभ, अनल, चौल, भीम तथा भूतरव आदि देशों के राजाओंको वशकर वे सिन्धुके दूसरे तटपर गये तथा वहाँ पश्चिम समुद्रके दूसरे तटपर स्थित राजाओंको नम्रीभूत किया ॥७७-७८ ॥ पुरखेट तथा मटम्ब आदिके स्वामी एवं अन्य जिन देशोंके अधिपतियों को उन दोनों कुमारोंने वश किया था हे श्रेणिक ! मैं यहाँ तेरे लिए उनका कुछ वर्णन करता हूँ ||७६ ॥ ये देश कुछ तो आर्य देश थे, कुछ म्लेच्छ देश थे, और कुछ नाना प्रकारके आचारसे युक्त दोनों प्रकारके थे ॥८०॥ भीरु, यवन, कक्ष, चारु, त्रिजट, नट, शक, केरल, नेपाल, मालव, आरुल, शर्वर, वृषाण, वैद्य, काश्मीर, हिडिम्ब, अवष्ट, वर्वर, त्रिशिर, पारशैल, गौशील, उशीनर, सूर्यारक, सनर्त, खश, विन्ध्य, शिखापद, मेखल, शूरसेन, वाह्लीक, उल्लूक, कोसल, दरी, गांधार, सौवीर, पुरी, कौबेर, कोहर, अन्ध्र, काल और कलिङ्ग इत्यादि अनेक देशोंके स्वामी रणाङ्गण में जीते गये थे और कितने ही प्रतापसे ही आधीनताको प्राप्त हो गये थे। इन सब देशों में अलग-अलग नाना प्रकार की भाषाएँ थीं, पृथक्-पृथक् गुण थे, नाना प्रकार रत्न तथा वस्त्रादिका पहिराव था, वृक्षोंकी नाना जातियाँ थीं, अनेक प्रकारकी खानें थीं और सुवर्णादि धनसे सब सुशोभित थे ॥ ८१-८६॥ महावैभवसे युक्त तथा अनुरागसे सहित नाना देशोंके मनुष्य लवणाङ्कुशकी इच्छानुसार कार्य
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