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पद्मपुराणे
वेणवीणामृदङ्गादिनिःस्वानपरिवर्जिता। नगरी देव साता करुणाक्रन्दपूरिता ॥१६॥ रण्यासूचानदेशेपु कान्तारेषु सरित्सु च । त्रिकचत्वरभागेषु भवनेष्वापणेषु च ॥१७॥ सन्तताभिपतन्तीभिरश्रुधाराभिरुद्गतः । पकः समस्तलोकस्य घनकालभवोपमः ॥१८॥ वाष्पगद्गदया वाचा कृच्छ्रेण समुदाहरन् । गुणप्रसूनवर्षेण परोक्षामपि जानकीम् ॥१॥ पूजयस्यखिलो लोकस्तदेकगतमानसः । सा हि सर्वसतीमृतिं पदं चक्रे गुणोज्ज्वला ॥१०॥ समुत्कण्ठापराधीनैः स्वयं देव्याऽनुपालितैः । छेकैरपि परं दीनं रुदितं धूतविग्रहैः ॥१०१॥ तदेवं गुणसम्बन्धसमस्तजनचेतसः । कृते कस्य न जानक्या वर्तते शुगनुत्तरा ॥१०२।। किन्तु कोविद नोपायः पश्चात्तापो मनीषिते । इति सञ्चिन्त्य धीरत्वमवलम्बितुमर्हसि ॥१०३॥ इति लघमणवाक्येन पद्मनाभः प्रसादितः । शोकं किञ्चित्परित्यज्य कर्त्तव्ये निदधे मनः ॥१०॥ प्रेतकर्मणि जानक्याः सादरं जनमादिशत् । दाग भद्रकलशं चैव समाह्वाय जगाविति ॥१०५।। समादिष्टोऽसि वैदेह्या पूर्व भद्र यथाविधम् । तेनैव विधिना दानं तामुद्दिश्य प्रदीयताम् ॥१०६।। यथाऽऽज्ञापयसीत्युक्त्वा कोषाध्यक्षः सुमानसः । अर्थिनामीप्सितं द्रव्यं नवमासानशिश्रणत् ।।१०७॥ सहस्रष्टभिः स्त्रीणां सेव्यमानोऽपि सन्ततम् । वैदेहों मनसा रामो निमेषमपि नात्यजत् ॥१०८।। सीताशब्दमयस्तस्य समालापः सदाऽभवत् । सर्व ददर्श वैदेहीं तद्गुणाकृष्टमानसः ॥१०॥ चितिरेणुपरीताङ्गां गिरिगह्वरवर्तिनीम् । अपश्यजानकी स्वप्ने नेत्राम्बुकृतदुर्दिनाम् ॥११०॥
चन्द्रमाके विना रात्रिकी शोभा नहीं है उसी प्रकार सीताके विना अयोध्याकी शोभा नहीं है ॥६५॥ हे देव ! समस्त नगरी बाँसुरी वीणा तथा मृदङ्ग आदिके शब्दसे रहित तथा करुण क्रन्दनसे पूर्ण हो रही है ।।६६॥ गलियोंमें, बागबगीचोंके प्रदेशोंमें, वनोंमें, नदियों में, तिराहोंचौराहों में, महलोंमें और बाजारों में निरन्तर निकलने वाली समस्त लोगोंकी अश्रुधाराओंसे वर्षा ऋतुके समान कीचड़ उत्पन्न हो गया है ।।६७-६८॥ यद्यपि जानकी परोक्ष हो गई है तथापि उसी एकमें जिसका मन लग रहा है ऐसा समस्त संसार अश्रुसे गद्गद वाणीके द्वारा बड़ी कठिनाईसे उच्चारण करता हुआ गुणरूप फूलांकी वषासे उसकी पूजा करता है सो ठीक ही है क्योंकि गुणोंसे उज्ज्वल रहनेवाली उस जानकीने समस्त सती स्त्रियोंके मस्तक पर स्थान किया था अर्थात् समस्त सतियों में शिरोमणि थी ॥६-१००। स्वयं सीतादेवीने जिनका पालन किया था तथा जो उसके अभावमें उत्कण्ठासे विवश हैं ऐसे शुक आदि चतुर पक्षी भी शरीरको कपाते हुए अत्यन्त दीन रुदन करते रहते हैं ॥१०१॥ इस प्रकार समस्त मनुष्योंके चित्तके साथ जिसके गुणोंका संबन्ध था ऐसी जानकीके लिए किस मनुष्यको भारी शोक नहीं है ? ॥१०२॥ किन्तु हे विद्वन् ! पश्चात्ताप करना इच्छित वस्तुके प्राप्त करनेका उपाय नहीं है ऐसा विचार कर धैये धारण करना योग्य है ।।१०३॥ इस प्रकार लक्ष्मणके वचनसे प्रसन्न रामर्ने कुछ शोक छोड़कर कर्तव्य-करने योग्य कार्यमें मन लगाया ॥१०४॥ उन्होंने जानकीके मरणोत्तर कार्यके विषयमें भादर सहित लोगोंको आदेश दिया तथा भद्रकलश नामक खजानचीको शीघ्र ही बुलाकर यह आदेश दिया कि हे भद्र! सीताने तुझे पहले जिस विधिसे दान देनेका आदेश दिया था उसी विधिसे उसे लक्ष्य कर अव मी दान दिया जाय ॥१०५-२०६॥ 'जैसी आज्ञा हो' यह कहकर शुद्ध हृदयको धारण करनेवाला कोषाध्यक्ष नौ मास तक याचकोंके लिए इच्छित दान देता रहा ॥१०७॥ यद्यपि आठ हजार स्त्रियाँ निरन्तर रामकी सेवा करती थीं तथापि राम पल भरके लिए भी मनसे सीताको नहीं छोड़ते थे ॥१०८।। उनका सदा सीता शब्द रूप ही समालाप होता था अर्थात् वे सदा 'सीता-सीता'कहते रहते थे और उसके गुणोंसे आकृष्ट चित्त हो सबको सीता रूप ही देखते थे अर्थात् उन्हें सर्वत्र सीता-सीता ही दिखाई देती थी ॥१०६।। पृथिवीको धूलिसे जिसका शरीर व्याप्त है, जो पर्वतकी गुफामें वास कर रही है तथा अश्रुओंकी जो लगातार वर्षा कर रही
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