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पद्मपुराणे
कृत्याकृत्य विवेकेन सुदूरं मुक्तमानसैः । गृहीता किमसि म्लेच्छैः पलीं नीता सुभीषणाम् ॥ ६३ ॥ पूर्वादपि प्रिये दुःखादिदं दुःखमनुत्तमम् । प्राप्तासि साध्वि कान्तारे दारुणेन मयोजिता ॥ ७० ॥ रात्रौ तमसि निर्भेये सुप्ता खिन्नशरीरिका । वनरेणुपरीताङ्गा किमाक्रान्ताऽसि हस्तिना ॥७१॥ गृधर्क्षभल्लगोमायुशशोलूकसमाकुले । निर्मार्गे परमारण्ये ध्रियले दुःखिता कथम् ||७२|| दंष्ट्राकरालवक्त्रेण धृताङ्गेन महाक्षुधा । किं व्याघ्रेणोपनीताऽसि प्रियेऽवस्थामशब्दिताम् ॥७३॥ किंवा विलोलजिह्वेन विलसत्केसरालिना । सिंहेनास्यथवा सत्त्वशाली को 'योषितीदृशः ॥७४॥ ज्वालाकलापिनोत्तुङ्गपादपानावकारिणा । दावेन किन्नु नीताऽसि देव्यवस्थामशोभनाम् ॥७५॥ अथवा ज्योतिरीशस्य करैरत्यन्तदुःस हैः । जन्तुधर्म किमाप्ताऽसि छायासर्पणविह्वला ॥ ७६ ॥ नृशंसेऽपि मयि स्वान्तं कृत्वा शोभनशीलिका । विदीर्णहृदया किन्नु मर्त्यधर्मसमाश्रिता ॥७७॥ वातिरत्न जटिभ्यां मे सदृशः को नु साम्प्रतम् । प्रापयिष्यति सीताया वार्तां कुशलशंसिनीम् ||७८ || हा प्रिये हा महाशीले हा मनस्विनि हा शुभे । तिष्ठसि क्व याताऽसि किं करोषि न वेत्सि किम् ॥ ७६ ॥ अहो कृतान्तवक्त्रासौ सत्यमेव स्वया प्रिया । व्यक्तातिदारुणेऽरण्ये कथमेवं करिष्यसि ॥ ८० ॥ ब्रूहि ब्रूहि न सा कान्ता व्यक्ता तव मयेतरम् । वक्त्रेणानेन चन्द्रेण सरतेवामृतोत्रम् ॥८१॥ इत्युक्तोऽपत्र पाभारन्तवक्त्रो गतप्रभः । प्रतिपत्तिविनिर्मुक्तः सेनानी कुलोऽभवत् ॥ ८२ ॥
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तेरे पैर कठोर भूमिके साथ समागमको किस प्रकार सहन करेंगे ? ||६८ | | अथवा जिनका मन, कृत्य और अकृत्य के विवेकसे बिलकुल ही रहित है ऐसे म्लेच्छ लोग तुझे पकड़ कर अत्यन्त भयंकर पल्ली में ले गये होंगे ॥६६॥ हे प्रिये ! हे साध्वि ! मुझ दुष्टने तुझे वनमें छोड़ा है अतः अबकी बार पहले दुःख से भी कहीं अधिक दुःखको प्राप्त हुई है || ७० ॥ अथवा तू खेदखिन्न एवं वनकी धूली से व्याप्त हो रात्रिके सघन अन्धकार में सो रही होगी सो तुझे हाथीने दबा दिया होगा || ७१ ॥ जो गीध रोळ भालू शृगाल खरगोश और उल्लुओंसे व्याप्त है तथा जहाँ मार्ग दृष्टिगोचर नहीं होता ऐसे बीहड़ वनमें दुखी होती हुई तू कैसे रहेगी ? || ७२॥ अथवा हे प्रिये ! जिसका मुख दाढोंसे भयंकर है, अंगड़ाई लेने से जिसका शरीर कम्पित है तथा जो तीव्र भूखसे युक्त है ऐसे किसी व्याघ्रने तुम्हें शब्दागोचर अवस्थाको प्राप्त करा दिया है ? || ७३ | | अथवा जिसकी जिह्वा लप-लपा रही है और जिसकी गरदन के बालोंका समूह सुशोभित है ऐसे किसी सिंहने तुम्हें शब्दातीत दशाको प्राप्त करा दिया है क्योंकि ऐसा कौन है जो स्त्रियोंके विषय में शक्ति-शाली न हो ? ||७४ | अथवा हे देवि ! ज्वालाओंके समूह से युक्त, तथा ऊँचे-ऊँचे वृक्षोंका अभाव करने वाले दावानलके द्वारा तू क्या अशोभन अवस्थाको प्राप्त कराई गई है ? || ७५ ॥ अथवा तू छाया में जाने के लिए असमर्थ रही होगी इसलिए क्या सूर्यको अत्यन्त दुःसह किरणोंसे मरणको प्राप्त हो गई है ॥ ७६ ॥ अथवा तू प्रशस्त शीलकी धारक थी और मैं अत्यन्त क्रूर प्रकृतिका था। फिर भी तूने मुझमें अपना चित्त लगाया। क्य। इसी असमञ्जसभाव से तेरा हृदय विदीर्ण हो गया होगा और तू मृत्युको प्राप्त हुई होगी || ७७ || हनूमान् और रत्नजटीके समान इस समय कौन है ? जो सीताकी कुशल वार्ता प्राप्त करा देगा ? ||७|| हा प्रिये ! हा महाशीलवति ! हा मनस्विनि ! हा शुभे ! तू कहाँ है ? कहाँ चली गई ? क्या कर रही है । क्या कुछ भी नहीं जानती ? ॥७६॥ अहो कृतान्तवक्त्र ! क्या सचमुच ही तुमने प्रियाको अत्यन्त भयानक वनमें छोड़ दिया है ? नहीं नहीं तुम ऐसा कैसे करोगे ? ||०|| इस मुखचन्द्र से अमृतके समूहको कराते हुएके समान तुम कहो कहो कि मैंने तुम्हारी उस कान्ताको नहीं छोड़ा है ॥८१॥ इस प्रकार कहने पर लज्जाके भारसे जिसका मुख नीचा हो गया था, जिसकी प्रभा समाप्त हो गई थी, और जो स्वीकृति से रहित था ऐसा
१. के योषितीदृशी ब० । किं योषितीदृशः म० ।
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