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शतं पर्व
नवयौवनसम्पन्न महासुन्दर चेष्टितौ । प्रकाशतां परिप्राप्तौ धरण्यां लवणाङ्कुशौ ॥६६॥ अभिनन्द्य समस्तस्य लोकस्योत्सुकताकरौ । पुण्येन घटितात्मानौ सुखकारण दर्शनौ ॥७०॥ युवस्यास्य कुमुद्वत्याः शरत्पूर्णेन्दुतां गतौ । वैदेहीहृदयानन्दमयजङ्गममन्दरौ ॥ ७१ ॥ कुमारादित्यसङ्काशी पुण्डरीकनिभेक्षणौ । द्वीपदेवकुमाराभौ श्रीवत्साङ्कतवक्षसौ ॥७२॥ अनन्तविक्रमाधारौ भवाम्भोधितटस्थितौ । परस्परमहाप्रेमबन्धनप्रवणकृतौ ॥७३॥ मनोहरणसंसक्तौ धर्ममार्गस्थितावपि । वक्रतापरिनिर्मुक्तौ कोटिस्थितगुणावपि ॥ ७४ ॥ विजित्य तेजसा भानुं स्थिती कान्त्या निशाकरम् । ओजसा त्रिदशावीशं गाम्भीर्येण महोदधिम् ॥ ७५ ॥ मेरुं स्थिरत्वयोगेन क्षमाधर्मेण मेदिनीम् । शौर्येण मेघनिःस्त्रानं गत्या मारुतनन्दनम् ॥७६॥ गृहीतामिषं मुक्तमपि वेगाद्दूरतः । मकरग्राहनक्राद्यैः कृतक्रीडौ महाजले ॥७७॥ श्रमसौख्यम सम्प्राप्तौ मत्तैरपि महाद्विपैः । भयादिव तनुच्छायात् उस्खलितार्ककरोत्करौ ॥ ७८ ॥ धर्मतः सम्मितौ साधोरर्ककीर्तेश्व सत्वतः । सम्यग्दर्शनतोऽगस्य दानाच्छ्री विजयस्य च ॥ ७६ ॥ अयोध्यावभिमानेन साहसान्मधुकैटभौ । महाहवसमुद्योगादिन्द्र जिन्मेघवाहनौ ॥८०॥ गुरुशुश्रूषणयुक्त जिनेश्वरकथारतौ । शत्रूगां जनितत्रासौ नाममात्रश्रुतेरपि ॥ ८१ ॥
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लोगोंके मुख से शब्द प्रकट होते थे तथा दोनों ही शुभ अभ्युदयसे सहित थे ||६८ || जो नव Satara सम्पन्न थे और महासुन्दर चेष्टाओंके धारक थे, ऐसे लवण और अङ्कुश पृथिवी में प्रसिद्धि को प्राप्त हुए ||६६ || वे दोनों समस्त लोगोंके द्वारा अभिनन्दन करनेके योग्य थे और सभी लोगों की उत्सुकता को बढ़ानेवाले थे । पुण्यसे उनके स्वरूपकी रचना हुई थी तथा उनका दर्शन सबके लिए सुखका कारण था |७०|| युवती स्त्रियोंके मुखरूपी कुमुदिनी के विकास के लिए वे दोनों शरद् ऋतुके पूर्ण चन्द्रमा थे और सीताके हृदय सम्बन्धी आनन्द के लिए मानो चलते फिरते सुमेरु ही हों । । ७१ ॥ वे दोनों अन्य कुमारोंमें सूर्य के समान थे, सफेद कमलोंके समान उनके नेत्र थे । वे द्वीपकुमार नामक देवोंके समान थे तथा उनके वक्षःस्थल श्रीवत्स चिह्नसे अलंकृत थे ।। ७२ ।। अनन्त पराक्रमके आधार थे, संसार-समुद्रके तट पर स्थित थे, परस्पर महाप्रेमरूपी बन्धन से बँधे थे ॥७३॥ वे धर्मके मार्ग में स्थित होकर भी मनके हरण करनेमें लीन थे - मनोहारी थे और कोटिस्थित गुणों अर्थात् धनुष के दोनों छोरों पर डोरीके स्थित होने पर भी वक्रता अर्थात् कुटिलता से रहित थे (परिहार पक्ष में उनके गुण करोड़ोंकी संख्या में स्थित थे तथा वे मायाचार रूपी कुटिलता से रहित थे) ॥ ७४ ॥ वे तेजसे सूर्यको, कान्तिसे चन्द्रमाको, ओजसे इन्द्रको, गाम्भीर्य से समुद्रको, स्थिरता के योग से सुमेरुको, क्षमाधर्म से पृथिवी को, शूर-वीरता से जयकुमारको और गति से हनुमान् को, जीतकर स्थित थे ||७५-७६ ॥ वे छोड़े हुए बाणको भी अपने वेगसे पास ही में पकड़ सकते थे तथा विशाल जल में मगरमच्छ तथा नाके आदि जल जन्तुओंके साथ क्रीड़ा करते थे || ७७ ॥ ममाते महागजोंके साथ युद्ध कर भी वे श्रमसम्बन्धी सुखको प्राप्त नहीं होते थे तथा उनके शरीरकी प्रभासे भयभीत होकर ही मानो सूर्यकी किरणोंका समूह स्खलित हो गया था ॥ ७८ ॥ वे धर्मकी अपेक्षा साधुके समान, सत्त्व अर्थात् धैर्यको अपेक्षा अर्ककीर्तिके समान, सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा पर्वत के समान और दानकी अपेक्षा श्री विजय बलभद्र के समान थे || ७६ || अभिमानसे अयोध्य थे अर्थात् उनके साथ कोई युद्ध नहीं कर सकता था, साहससे मधुकैटभ थे और महायुद्ध सम्बन्धी उद्योग से इन्द्रजित् तथा मेघवाहन थे ॥ ८०॥ वे गुरुओंकी सेवा करनेमें तत्पर रहते थे, जिनेन्द्रदेवकी कथा अर्थात् गुणगान करनेमें लीन रहते थे तथा नामके सुनने मात्रसे शत्रुओंको भय उत्पन्न
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१. युवत्यास्याः म० । २. तरस्थितौ म० । ३. तनुच्छाया स्खलिता ज० । ४. अर्क कीर्तिश्च म० ।
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