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काधिकशतं पर्व
ततो दारक्रियायोग्य दृष्ट्वा तावतिसुन्दरौ । वज्रजङ्घो मतिं चक्रे कन्यान्वेषणतत्पराम् ॥१॥ लक्ष्मीदेव्याः समुत्पन्नां शशिचूलाभिधानकाम् । द्वात्रिंशत्कन्यकायुक्तामाद्यस्थाकरुपयत्सुताम् ॥२॥ विवाहमङ्गलं द्रष्टुमुभयोर्युगपन्नृपः । अभिलक्ष्यन् द्वितीयस्य कन्यां योग्यां समन्ततः ॥३॥ अपश्यन्मनसा खेदं परिप्राप्त इवोत्तमाम् । सस्मार सहसा सद्यः कृतार्थवमिवात्रजत् ॥४॥ पृथिवी नगरेशस्य राज्ञोऽस्ति प्रवराङ्गजा । शुद्धा कनकमालाख्यामृतवत्यङ्गसम्भवा ॥ ५॥ रजनीपतिलेखेत्र सर्वलोकमलिम्लुचा । श्रियं जयति या पद्मवती पद्मविवर्जिता ॥ ६ ॥ या साम्यं शशिचूलायाः समाश्रितवती शुभा । इति सञ्चिन्त्य तद्धेतोर्दूतं प्रेषितवान्नृपः ॥७॥ पृथिवीपुरमासाद्य स क्रमेण विचक्षणः । जगाद कृतसम्मानो राजानं पृथुसंज्ञकम् ॥८॥ तावदेवेक्षितो दृष्टया दूतो राज्ञा विशुद्धया । कन्यायाचनसम्बन्धं यावद् गृह्णाति नो वचः ॥ १ ॥ उवाच च न तेरे दूत काचिदप्यस्ति दूषिता । यतो भवान् पराधीनः परवाक्यानुवादकृत् ॥१०॥ निरुष्माणश्वलात्मानो बहुभङ्गसमाकुलाः । जलौघा इव नीयन्ते यथेष्टं हि भवद्विधाः ॥११॥ कर्तु तथापि ते युक्तो निग्रहः पापभाषिणः । परेण प्रेरितं कि यन्त्रं हन्तु विहन्यते ॥ १२ ॥ किञ्चित्कर्तुमशक्तस्य रजःपात समात्मनः । अपाकरणमात्रेण मया ते दूत सत्कृतम् ॥१३॥
अथानन्तर उन सुन्दर कुमारोंको विवाहके योग्य देख, राजा वाजंघने कन्याओंके खोजने में तत्पर बुद्धि की ||१|| सो प्रथम ही अपनी लक्ष्मी रानीसे उत्पन्न शशिचूला नामकी पुत्रीको अन्य बत्तीस कन्याओंके साथ लवणको देना निश्चित किया ||२|| राजा वजन दोनों कन्याओंका विवाह मङ्गल एक साथ देखना चाहता था। इसलिए वह द्वितीय पुत्रके योग्य कन्याओंकी सब ओर खोज करता रहा ||३|| उत्तम कन्याको न देख एक दिन वह मनमें खेदको प्राप्त हुएके समान बैठा था कि अकस्मात् उसे शीघ्र ही स्मरण आया और उससे वह मानो कृतकृत्यताको ही प्राप्त हो गया || ४ || उसने स्मरण किया कि 'पृथिवी नगरके राजाकी अमृतवती रानीके गर्भ से उत्पन्न कनकमाला नामकी एक शुद्ध तथा श्रेष्ठ पुत्री है ||५|| वह चन्द्रमाकी रेखाके समान सब लोगोंको हरण करनेवाली है, लक्ष्मीको जीतती है और कमलोंसे रहित मानो कमलिनी ही है ॥ ६ ॥ वह शशिचूलाकी समानताको प्राप्त है तथा शुभ है'। इस प्रकार विचार कर उसके निमित्तसे राजा वजंधने दूत भेजा ॥ ७ ॥ बुद्धिमान् दूतने क्रम-क्रम से पृथिवीपुर पहुँच कर तथा सन्मान कर वहाँ के राजा पृथुसे वार्तालाप क्रिया ॥८॥ उसी समय राजा पृथुने विशुद्ध दृष्टिसे दूतकी ओर देखा और दूत जब तक कन्याकी याचनासे सम्बन्ध रखनेवाला वचन ग्रहण नहीं कर पात है कि उसके पहले ही राजा पृथु बोल उठे कि रे दूत ! इसमें तेरा कुछ भी दोष नहीं है क्योंकि तू पराधीन है और परके वचनोंका अनुवाद करनेवाला है ॥६- १०॥ जो स्वयं ऊष्मा आत्मगौरव ( पक्ष में गरमी ) से रहित हैं, जिनकी आत्मा चञ्चल है तथा जो बहुभंगों अनेक अपमानों ( पक्ष में अनेक तरंगों ) से व्याप्त हैं इस तरह जलके प्रवाहके समान जो आप जैसे लोग हैं, वे इच्छानुसार चाहे जहाँ ले जाये जाते हैं ॥११॥ यद्यपि यह सब है तथापि तूने पापपूर्ण वचनोंका उच्चारण किया है, अतः तेरा निग्रह करना योग्य है क्योंकि दूसरे के द्वारा चलाया हुआ विघातक यन्त्र क्या नष्ट नहीं किया जाता ? ||१२|| हे दूत ! मैं जानता हूँ कि तू धूली पानके समान है, और कुछ भी करने में समर्थ नहीं है इसलिए यहाँ से हटा देना मात्र ही तेरा सत्कार (?) अर्थात्
१. पृथुसंज्ञगम् म० । २. वचनं दूतः म० । ३. केन म० ।
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