________________
शतं पर्व
२७
महोपचारविनयप्रयोगहृतमानसः । क्षुल्लकः परितुष्टात्मा ददर्श लवणाकुशौ ॥४३॥ महानिमित्तमष्टाङ्ग ज्ञाता सुश्राविकामसौ । सम्भाषयितुमप्राक्षीद् वार्ता पुत्रकसमताम् ॥४॥ तयावेदितवृत्तान्तो वाष्पदुर्दिननेत्रया । क्षणं शोकसमाकान्तः क्षुल्लको दुःखितोऽभवत् ॥४५॥ उवाच च न देवि त्वं विधातुं शोकमर्हसि । यस्या देवकुमाराभौ प्रशस्तौ बालकाविमौ ॥४६॥ अथ तेन पनप्रमप्रवणीकृतचेतसा। चिराग्छस्त्रशास्त्राणि माहिती लवणाशी ॥४७॥ ज्ञानविज्ञानसम्पन्नी कलागुणविशारदौ। दिव्यास्त्रक्षेपसंहारविषयातिविचक्षणी ॥४॥ विभ्रतुस्तौ परां लचमी महापुण्यानुभावतः । वस्तावरणसम्बन्धी निधानकलशाविव ॥४॥ न हि कश्चिद्गुरोः खेदः शिष्ये शक्तिसमन्विते । सुखेनैव प्रदर्श्यन्ते भावाः सूर्येण नेत्रिणे ॥५०॥ भजतां संस्तवं पूर्व गुणानामागमः सुखम् । खेदोऽवतरतां कोऽसौ हंसानां मानसं हृदम् ॥५१॥ उपदेशं ददत्पात्रे गुरुांति कृतार्थताम् । अनर्थकः समुद्योतो रवेः कौशिकगोचरः ॥५२॥ स्फुरद्यशःप्रतापाभ्यामाक्रान्तभुवनावथ । अभिरामदुरालोको शीततिम्मकराविव ॥५३॥ व्यक्ततेजोबलावग्निमारुताविव सङ्गतौ । शिलाहढवपुःस्कन्धौ हिमविन्ध्याचलाविव ॥५४॥
महावृषौ यथा कान्तयुगसंयोजनोचितौ। धर्माश्रमाविवात्यन्तरमणीयौ सुखावहौ ॥५५॥ छोड़ वह क्षुल्लक निश्चित हो सुखसे बैठ गया। तदनन्तर पूछने पर उसने सीताके लिए अपने भ्रमण आदिकी वार्ता सुनाई ॥४२॥ अत्यधिक उपचार और विनयके प्रयोगसे जिसका मन हरा गया था, ऐसे क्षुल्लकने अत्यन्त संतुष्ट होकर लवणांकुशको देखा ॥४३॥ अष्टाङ्ग महानिमित्तके ज्ञाता उस क्षुल्लकने वार्तालाप बढ़ानेके लिए श्राविकाके व्रत धारण करनेवाली सीतासे उसके पुत्रोंसे सम्बन्ध रखनेवाली वार्ता पूछी ॥४४॥ तब नेत्रोंसे अश्रकी वर्षा करती हुई सीताने क्षुल्लकके लिए सब समाचार सुनाया, जिसे सुनकर क्षुल्लक भी शोकाक्रान्त हो दुःखी हो गया ॥४५॥ उसने कहा भी कि हे देवि ! जिसके देवकुमारोंके समान ये दो बालक विद्यमान हैं ऐसी तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए ॥४६॥
अथानन्तर अत्यधिक प्रेमसे जिसका हृदय वशीभूत था ऐसे उस क्षुल्लकने थोड़े ही समयमें लवणाङ्कशको शस्त्र और शास्त्र विद्या ग्रहण करा दी ॥४७॥ वे पुत्र थोड़े ही समयमें ज्ञानविज्ञानसे संपन्न, कलाओं और गुणों में विशारद तथा दिव्य शस्त्रोंके आह्वान एवं छोड़नेके विषयमें अत्यन्त निपुण हो गये ॥४८॥ महापुण्यके प्रभावसे वे दोनों, जिनके आवरणका सम्बन्ध नष्ट हो गया था, ऐसे खजानेके कलशोंके समान परम लक्ष्मीको धारण कर रहे थे ॥४६॥ यदि शिष्य शक्तिसे सहित है, तो उससे गुरुको कुछ भी खेद नहीं होता, क्योंकि सूर्यके द्वारा नेत्रवान् पुरुषके लिए समस्त पदार्थ सुखसे दिखा दिये जाते हैं ॥५०॥ पूर्व परिचयको धारण करनेवाले मनुष्योंको गुणोंकी प्राप्ति सुखसे हो जाती है सो ठीक ही है क्योंकि मानस-सरोवरमें उतरनेवाले हंसोंको क्या खेद होता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥५।। पात्रके लिए उपदेश देनेवाला गुरु कृतकृत्यताको प्राप्त होता है। क्योंकि जिस प्रकार उल्लूके लिए किया हुआ सूर्यका प्रकाश व्यर्थ होता है, उसी प्रकार अपात्रके लिए दिया हुआ गुरुका उपदेश व्यर्थ होता है ॥५२॥
अथानन्तर बढ़ते हुए यश और प्रतापसे जिन्होंने लोकको व्याप्त कर रखा था ऐसे वे दोनों पुत्र चन्द्र और सूर्यके समान सुन्दर तथा दुरालोक हो गये अर्थात् वे चन्द्रमाके समान सुन्दर थे और सूर्यके समान उनकी ओर देखना भी कठिन था ॥५३॥ प्रकट तेज और बलके धारण करनेवाले वे दोनों पुत्र परस्पर मिले हुए अग्नि और पवनके समान जान पड़ने थे अथवा जिनके शरीरके कन्धे शिलाके समान दृढ़ थे ऐसे वे दोनों भाई हिमाचल और विन्ध्याचलके समान दिखाई देते थे।॥५४॥अथवा वे कान्त युग संयोजन अर्थात् सुन्दर जुवा धारण करनेके योग्य
१. ज्ञात्वा म• । २. प्रवीण म ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org