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पद्मपुराणे
जननीतीरसेकोत्थविलासहसितैरिव । जातं दशनकैर्ववत्रपद्मकं लब्धमण्डनम् ॥२८॥ धात्रीकराङगुलीलग्नौ पञ्चषाणि पदानि तौ। एवंभूतौ प्रयच्छन्ती मनः कस्य न जहतुः ॥२६॥ पुत्रको 'ताशौ वीच्य चारुकीडनकारिणी । शोकहेतुं विसस्मार समस्तं जनकात्मजा ॥३०॥ वर्द्धमानौ च तौ कान्तौ निसर्गोदात्तविभ्रमौ । देहावस्था परिप्राप्तौ विद्यासंग्रहणोचिताम् ॥३१॥ ततस्तत्पुण्ययोगेन सिद्धार्थो नाम विश्रुतः । शुद्धात्मा क्षुल्लकः प्राप वज्रजङ्घस्य मन्दिरम् ॥३२॥ सन्ध्यात्रयमबन्ध्यं यो महाविद्यापराक्रमः । मन्दरोरसि वन्दित्वा जिनानेति पदं क्षणात् ॥३३॥ प्रशान्तवदनो धीरो लुञ्चरञ्जितमस्तकः । साधुभावनचेतस्को वस्त्रमात्रपरिग्रहः ॥३४॥ उत्तमाणुव्रतो नानागुणशोभनभूषितः । जिनशासनतत्त्वज्ञः कलाजलधिपारगः ॥३५॥ अंशुकेनोपवीतेन सितेन प्रचलात्मना । मृणालकाण्डजालेन नागेन्द्र इव मन्थरः ॥३६॥ करअजालिका कक्षे कृत्वा प्रियसीमिव । मनोज्ञममृतास्वादं धर्मवृद्धिरिति अवन् ॥३७॥ गृहे गृहे शनैर्भिक्षां पर्यटन विधिसङ्गतः । गृहोत्तमं समासीदद्यत्र तिष्ठति जानकी ॥३८॥ जिनशासनदेवीव सामनोहरभावना। दृष्टा क्षल्लकमुत्तीर्य सम्भ्रान्ता नवमालिकाम् ॥३६॥ उपगत्य समाधाय करवारिरहद्वयम् । इच्छाकारादिना सम्यक सम्पूज्य विधिकोविदा ॥४०॥ विशिष्टेनानपानेन समतपयदादरात् । जिनेन्द्रशासनाऽऽसक्तान् सा हि पश्यति बान्धवान् ॥४१॥ निवर्तितान्यकर्त्तव्यः सविश्रब्धः सुखं स्थितः । पृष्टो जगाद सीताय स्ववात्ता भ्रमणादिकम् ॥४२॥
उसी प्रकार उनकी भोली भाली मनोहर मुसकान सब ओरसे हृदयोंको आकर्षित करती थीं ॥२७॥माताके क्षीरके सिञ्चनसे उत्पन्न विलास हास्यके समान जो छोटे-छोटे दाँत थे उनसे उनका मुख.. रूपी कमल अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ।।२८॥ धायके हाथकी अंगुली पकड़ कर पाँच छह डग देनेवाले उन दोनों बालकोंने किसका मन हरण नहीं किया था ॥२६॥ इस प्रकार सुन्दर क्रीड़ा करनेवाले उन पुत्रोंको देखकर माता सीता शोकके समस्त कारण भूल गई ॥३०॥ इस तरह क्रम-क्रमसे बढ़ते तथा स्वभावसे उदार विभ्रमको धारण करते हुए वे दोनों सुन्दर विद्या ग्रहणके योग्य शरीरकी अवस्थाको प्राप्त हुए ॥३१॥
तदनन्तर उनके पुण्य योगसे सिद्धार्थ नामक एक प्रसिद्ध शुद्ध हृदय क्षुल्लक, राजा वनजनके घर आया ॥३२।। वह खुल्लक महाविद्याओंके द्वारा इतना पराक्रमी था कि तीनों संध्याओंमें प्रतिदिन मेरुपर्वत पर विद्यमान जिन-प्रतिमाओंकी वन्दना कर क्षण भरमें अपने स्थान पर आ जाता था ॥३३॥ वह प्रशान्त मुख था, धीर वीर था, केशलुंच करनेसे उसका मस्तक सुशोभित था, उसका चित्त शुद्ध भावनाओंसे युक्त था, वह वस्त्र मात्र परिग्रहका धारक था, उत्तम अणुव्रती था, नानागुण रूपी अलंकारोंसे अलंकृत था, जिन शासनके रहस्यको जाननेवाला था, कलारूपी समुद्रका पारगामी था, धारण किये हुए सफेद चञ्चल वस्त्रसे ऐसा जान पड़ता था मानो मृणालोंके समूहसे वेष्टित मन्द मन्द चलनेवाला गजराज ही हो, जो पीछीको प्रिय सखी के समान बगलमें धारण कर अमतके स्वादके समान मनोहर 'धर्मवृद्धि' शब्दका उच्चारण कर रहा था, और घर घरमें भिक्षा लेता हुआ धीरे-धीरे चल रहा था, इस तरह भ्रमण करता हुआ संयोगवश उस उत्तम घर में पहुँचा, जहाँ सीता बैठी थी ॥३४-३८॥ जिनशासन देवीके समान मनोहर भावनाको धारण करनेवाली सीताने ज्योंही क्षुल्लकको देखा, त्योंही वह संभ्रमके साथ नौखण्डा महलसे उतर कर नीचे आ गई ॥३६॥ तथा पास जाकर और दोनों हाथ जोड़कर उसने इच्छाकार आदिके द्वारा उसकी अच्छी तरह पूजा की । तदनन्तर विधिके जाननेमें निपुण सीताने उसे आदर पूर्वक विशिष्ट अन्न पान देकर संतुष्ट किया, सो ठीक ही है क्योंकि वह जिनशासनमें आसक्त पुरुषोंको अपना बन्धु समझती है ॥४०-४१।। भोजनके बाद अन्य कार्य १. तादृशै -म० । २. नवमालिका म० ।
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