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नवनवतितमं पर्व
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स्थिते निर्वचने तस्मिन् ध्यात्वा सीतां सुदुःखिताम् । पुनर्मूच्छां गतो रामः कृच्छ्रासंज्ञांच लम्भितः॥३॥ लचमणोऽत्रान्तरे प्राप्तो जगादान्तःशुचं स्पृशन् । आकुलोऽसि किमित्येवं देव धैर्य समाश्रय ॥८॥ फलं पूर्वार्जितस्येदं कर्मणः समुपागतम् । सकलस्यापि लोकस्य राजपुध्या न केवलम् ॥५॥ प्राप्तव्यं येन यल्लोके दुःखं कल्याणमेव वा । स तं स्वयमवाप्नोति कुतश्विव्यपदेशनः ॥६॥ आकाशमपि नीतः सन् वनं वा श्वापदाकुलम् । मूर्धानं वा महीध्रस्य पुण्येन स्वेन रचयते ।।७।। देव सीतापरित्यागश्रवणागरतावनौ । अकरोदास्पदं दुःखं प्राकृतीयमनःस्वपि ॥॥ प्रजानां दुःखतप्तानां विलीनानां समन्ततः । अश्रुधारापदेशेन हृदयं न्यंगलचिव ॥८|| परिदेवनमेवं च चक्रेऽत्यन्तसमाकुलः । हिमाहतप्रभाम्भोजखण्डसम्मितवक्त्रकः ॥१०॥ हा दुष्टजनवाक्याग्निप्रदीपितशरीरिके । गुणसस्यसमुद्भूतिभूमिभूतसुभावने ॥११॥ राजपुत्रि क्व याताऽसि सुकुमाराङ्घ्रिपल्लवे । शीलाद्रिधरणक्षोणि सीते सौम्ये मनस्विनि ॥१२॥ खलवाक्यतुषारण मातः पश्य समन्ततः । गुणराट विसिनी दग्धा राजहंसनिषेविता ॥३३॥ सुभद्रासदृशी भद्रा सर्वाचारविचक्षणा । सुखासिकेव लोकस्य मूर्ती कासि वरे गता ||३४॥ भास्करेण विना का द्यौः का निशा शशिना विना । स्त्रीरत्नेन विना तेन साकेता वाऽपि कीदृशी ॥१५॥
सेनापति व्याकुल हो गया ॥२॥ जब कृतान्तवक्त्र चुप खड़ा रहा तब अत्यन्त दुःखसे युक्त सीता का ध्यान कर राम पुनः मूर्छाको प्राप्त हो गये और बड़ी कठिनाईसे सचेत किये गये ॥३॥
इसी बीचमें लक्ष्मणने आकर हृदयमें शोक धारण करनेवाले रामका स्पर्श करते हुए कहा कि हे देव ! इस तरह व्याकुल क्यों होते हो ? धैर्य धारण करो ।।८४॥ यह पूर्वोपार्जित कर्मका फल समस्त लोकको प्राप्त हआ है न केवल राजपत्रीको ही ॥५॥ संसारमें जिसे जो दुःख अथवा सुख प्राप्त करना है वह उसे किसी निमित्तसे स्वयमेव प्राप्त करता है ॥८६॥ यह प्राणी चाहे आकाशमें ले जाया जाय, चाहे वन्य पशुओंसे व्याप्त वनमें ले जाया जाय और चाहे पर्वतकी चोटी पर ले जाया जाय सर्वत्र अपने पुण्यसे ही रक्षित होता है ।।८७॥ हे देव ! सीवाके परित्यागका समाचार सुनकर इस भरतक्षेत्रकी समस्त वसुधामें साधारणसे साधारण मनुष्योंके भी मनमें दुःखने अपना स्थान कर लिया है ॥८॥ दुःखसे संतप्त एवं सब ओरसे द्रवीभूत प्रजाजनोंके हृदय अश्रुधाराके बहाने मानो गल-गलकर बह रहे हैं ॥८६॥ रामसे इतना कहकर अत्यन्त व्याकुल हो लक्ष्मण स्वयं विलाप करने लगे और उनका मुख हिमसे ताडित कमल-वनके समान निष्प्रभ हो गया ||६०॥ वे कहने लगे कि हाय सीते! तेरा शरीर दुष्टजनोंके वचन रूपी अग्निसे प्रज्वलित हो रहा है, तू गुणरूपी धान्यकी उत्पत्तिके लिए भूमि स्वरूप है तथा उत्तम भावनासे युक्त है ॥६१॥ हे राजपुत्रि! तू कहाँ गई ? तेरे चरण-किसलय अत्यन्त सुकुमार थे ? तु शील रूपी पर्वतको धारण करनेके लिए पृथिवी रूप थी, हे सीते! तू बड़ी ही सौम्य और मनस्विनी थी ॥१२॥ हे मातः ! देख, दुष्ट मनुष्योंके वचनरूपी तुषारसे गुणोंसे सुशोभित तथा राजहंसोंसे
वित यह कमलिनी सब ओरसे दग्ध हो गई है। भावार्थ--यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार द्वारा विसिनी शब्दसे सीताका उल्लेख किया गया है। जिस प्रकार कमलिनी गुण अर्थात् तन्तुओंसे सुशोभित होती है उसी प्रकार सीता भी गुण अर्थात् दया दाक्षिण्य आदि गुणोंसे सुशोभित थी और जिस प्रकार कमलिनी राजहंस पक्षियोंसे सेवित होती है उसी प्रकार सीता भी राजहंस अर्थात् राजशिरोमणि रामचन्द्रसे सेवित थी ॥६३॥ हे उत्तमे ! तू सुभद्राके समान भद्र और सर्व आचारके पालन करने में निपुण थी तथा समस्त लोकको मूर्तिधारिणी सुख स्थिति स्वरूप थी। तू कहाँ गई ? ॥६४॥ सूर्यके विना आकाश क्या ? और चन्द्रमाके विना रात्रि क्या ? उसी प्रकार उस स्त्रीरत्नके विना अयोध्या कैसी ? भावार्थ--जिस प्रकार सूर्यके विना आकाशकी और
१. कुतश्चिद्वापदेशतः म० ।
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