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मवनवतितमं पव
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एवंविधे महारण्ये रहिता देव जानकी। मन्ये न क्षणमप्येकं प्राणान् धारयितुं क्षमा ॥५५॥ ततः सेनापतेवाक्यं श्रुत्वा रौद्रमरेरपि । विषादमगमद्रामस्तेनैव विदितात्मकम् ॥५६॥ भचिन्तयच्च किं न्वेतखलवाक्यवशात्मना। मयका मूढचित्तेन कृतमत्यन्तनिन्दितम् ॥५७॥ तारशी राजपुत्री कक्क चेदं दुःखमीदृशम् । इति सञ्चिन्त्य यातोऽऽसौ मूच्छा मुकुलितेक्षणः ॥५॥ चिराच प्रतिकारेण प्राप्य संज्ञां सुदुःखितः । विप्रलापं परं चक्रे दयितागतमानसः ॥५६॥ हा त्रिवर्णसरोजाति हा विशुद्धगुणाम्बुधे । हा वक्त्रजिततारेशे हा पद्मान्तरकोमले ॥६०॥ अयि वैदेहि देहि देहि देहि वचो द्रुतम् । जानास्येव हि मे चित्तं स्वदृतेऽत्यन्तकातरम् ॥६१॥ उपमानविनिर्मुक्तशीलधारिणि हारिणि । हितप्रियसमालापे पापवर्जितमानसे ॥६२॥ अपराधविनिर्मुक्ता निघृणेन मयोज्झिता । प्रतिपन्नाऽसि कामाशां मम मानसवासिनि ॥६३॥ महाप्रतिभयेऽरण्ये फरश्वापदसटे । कथं तिष्ठसि सन्त्यक्ता देवि भोगविवर्जिता ॥६॥ मदासक्तचकोराति लावण्यजलदीर्घिके। अपाविनयसम्पने हा देवि व गतासि मे ॥६५॥ निःश्वासाऽऽमोदजालेन बद्धान् झङ्कारसङ्गतान् । वारयन्ती कराब्जेन भ्रमरान् खेदमाप्स्यति ॥६६॥ कयास्यसि विचेतस्का यूथभ्रष्टा मृगी यथा । एकाकिनी वने भीमे चिन्तितेऽपि सुदुःसहे ॥६७॥ अजगर्भमृदू कान्तौ पादुकौ चारुलचमणौ । कथं तव सहिष्येते सङ्गं कर्कशया भुवा ॥६॥
सूख जानेसे घामसे पीड़ित भौंरे छटपटाते हुए इधर-उधर उड़ रहे हैं और जो कुपित सेहियोंके द्वारा छोड़े हुए काँटोंसे भयंकर है ऐसे महावनमें छोड़ी हुई सीता क्षणभर भी प्राण धारण करनेके लिए समर्थ नहीं है ऐसा मैं समझता हूँ॥४७-५५॥
तदनन्तर जो शत्रुसे भी अधिक कठोर थे ऐसे सेनापतिके वचन सुनकर राम विषादको प्राप्त हुए और उतनेसे ही उन्हें अपने आपका बोध हो गया-अपनी त्रुटि अनुभवमें आ गई।।५६।। वे विचार करने लगे कि मुझ मूर्ख हृदयने दुर्जनोंके वचनोंके वशीभूत हो यह अत्यन्त निन्दित कार्य क्यों कर डाला ? ॥५७।। कहाँ वह वैसी राजपुत्री ? और कहाँ यह ऐसा दुःख ? इस प्रकार विचार कर राम नेत्र बन्द कर मूर्छित हो गये ॥५८।। तदनन्तर जिनको हृदय स्त्रीमें लग रहा था ऐसे राम उपाय करनेसे चिरकाल बाद सचेत हो अत्यन्त दुखी होते हुए परम विलाप करने लगे ॥५६॥ वे कहने लगे कि हाय सीते ! तेरे नेत्र तीन रङ्गके कमलके समान हैं, तू निर्मल गुणों का सागर है, तूने अपने मुखसे चन्द्रमाको जीत लिया है, तू कमलके भीतरी भागके समान कोमल है ।।६०॥ हे वैदेहि ! हे वैदेहि ! शीघ्र ही वचन देओ । यह तो तू जानती ही है कि मेरा हृदय तेरे विना अत्यन्त कातर है ।।६१।। तू अनुपम शीलको धारण करने वाली है, सुन्दरी है, तेरा वार्तालाप हितकारी तथा प्रिय है। तेरा मन पापसे रहित है ॥६२।। तू अपराधसे रहित थी फिर भी निर्दय होकर मैंने तुझे छोड़ दिया। हे मेरे हृदयमें वास करने वाली ! तू किस दशा को प्राप्त हुई होगी ? ॥६३।। हे देवि ! महाभयदायक एवं दुष्ट वन्य पशुओंसे भरे हुए वनमें छोड़ी गई तू भोगोंसे रहित हो किस प्रकार रहेगी ? ॥६४॥ तेरे नेत्र मदोन्मत्त चकोरके समान हैं, तू सौन्दर्य रूपी जलकी वापिका है, लज्जा और विनयसे सम्पन्न है। हाय मेरी देवि ! तू कहाँ गई ? ॥६५॥ हाय देवि ! श्वासोच्छ्रासकी सुगन्धिसे भ्रमर तेरे मुखके समीप इकट्ठे होकर झंकार करते होंगे उन्हें कर कमलसे दूर हटाती हुई तू अवश्य ही खेदको प्राप्त होगी ॥६६।। जो विचार करने पर भी अत्यन्त दुःसह है ऐसे भयंकर वनमें झुण्डसे बिछुड़ी मृगीके समान तू अकेली शून्य हृदय हो कहाँ जायगी ? ॥६७। कमलके भीतरी भागके समान कोमल एवं सुन्दर लक्षणोंसे युक्त
१. गुणेषुधे ख०, ज०, म० । २. वादयन्ती म० । ३. पादुको म० ।
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