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नवनवतितमं पर्व
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मनसा च सशल्येन गाढशोको विबुद्धवान् । अचिन्तयत्ससूत्कारो वाष्पाच्छादितलोचनः ॥ १११ ॥ कष्टं लोकान्तरस्थाऽपि सीता सुन्दरचेष्टिता । न विमुञ्चति मां साध्वी सानुबन्धा हितोद्यता ।। ११२ ।। स्वैरं स्वैरं ततः सीताशोके विरलतामिते । परिशिष्टवरस्त्रीभिः पद्मो धृतिमुपागमत् ॥११३॥ af शीरचक्रदिव्यास्त्र परमन्यायसङ्गतौ । प्रीत्याऽनन्तरया युक्तौ प्रशस्तगुणसागरौ ॥ ११४ ॥ पालयन्तौ महीं सम्यनिम्नगापतिमेखलाम् । सौच मैंशानदेवेन्द्राविव रेजतुरुत्कटम् ॥ ११५ ॥
आर्याच्छन्दः
तौ तत्र कोशलायां सुरलोकसमानमानवायां राजन् ।
परमान् प्राप्तौ भोगान् सुप्रभपुरुषोत्तमौ यथा पुरुषेन्द्रौ ॥ ११६ ॥
"स्वकृत सुकर्मोदयतः सकलजनानन्ददानकोविदचरितौ ।
सुखसागरे निमग्नौ रविभावज्ञातकालमवतस्थाते ।। ११७ ।।
इत्यार्षे श्रीरविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे रामशोकाभिधानं नाम नवनवतितमं पर्व ॥६६॥
है ऐसी सीताको वे स्वप्न में देखते थे ||११०|| अत्यधिक शोकको धारण करनेवाले राम जब जागते थे तब सशल्य मनसे आंसुओंसे नेत्रोंको आच्छादित करते हुए सू-सू शब्द के साथ चिन्ता करने लगते थे कि अहो ! बड़े कष्टकी बात है कि सुन्दर चेष्टाको धारण करनेवाली सीता लोकान्तर में स्थित होने पर भी मुझे नहीं छोड़ रही है । वह साध्वी पूर्व संस्कार से सहित होने के कारण अब भी मेरा हित करनेमें उद्यत है ॥ १११-११२ ।। तदनन्तर धीरे-धीरे सीताका शोक विरल होने पर राम अवशिष्ट स्त्रियोंसे धैर्यको प्राप्त हुए ॥११३॥ जो परम न्याय से सहित थे, अविरल प्रीति से युक्त थे, प्रशस्त गुणोंके सागर थे, और समुद्रान्त पृथिवीका अच्छी तरह पालन करते थे ऐसे हल और चक्र नामक दिव्य अस्त्रको धारण करनेवाले राम-लक्ष्मण सौधर्मेन्द्र के समान अत्यधिक सुशोभित होते थे ॥११४ - ११५ ।। गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! जहाँ देवोंके समान मनुष्य थे ऐसी उस अयोध्या नगरी में उत्तम कान्तिको धारण करने वाले दोनों पुरुषोत्तम, इन्द्रोंके समान परम भोगोंको प्राप्त हुए थे || ११६ || अपने द्वारा किये हुए पुण्य कर्मके उदयसे जिनका चरित समस्त मनुष्योंके लिए आनन्द देने वाला था, तथा जो सूर्यके समान कान्ति वाले थे ऐसे राम लक्ष्मण अज्ञात काल तक सुखसागर में निमग्न रहे ॥ ११७ ॥
इसप्रकार र्ष नामसे प्रसिद्ध श्री रविषेणाचार्य द्वारा रचित पद्मपुराण में रामके शोकका वर्णन करने वाला निन्यानबेवां पर्व समाप्त हुआ ॥६६॥
१. सुप्रभौ म० । २. सुकृत म० । ३ रविभौ + अज्ञातकालम्, इतिच्छेदः । ३०-३
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